Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 248
________________ ४७. सिद्ध - ४८. आचार्य - ४९. उपाध्याय ५०. साधु - ५२. रजोहरण (ओघा मुँहली ( मुनि के उपकरण ) - १७४ Jain Education International प्रत्येक महाकाल - महायुग में यथावसर २४ तीर्थंकर उत्पन्न होते है। ये अरिहंत एक ही व्यक्ति के अवतार रूपमें नहीं होते है। अपितु विभिन्न व्यक्तियों के रूपमें होते हैं। तीर्थंकर बननेका अधिकार एक व्यक्तिकों नहीं, लेकिन अनेक व्यक्तियोंको है। तथा वे मनुष्य के रूपमें ही जन्म लेते है। पशु-प्राणी के रूपमें कदापि उत्पन्न नहीं होते हैं। भूतकालमें अनन्त तीर्थंकर उत्पन्न हुए और भविष्यकाल में अनन्त बनेंगे। प्रतिमा - मूर्तिकी पद्धतिसे चित्रित की गई है। यहाँ पद्मासनस्थित भामंडलवाली अरिहंताकृति काष्ठपात्र ५१. जैन मुनिके गृहस्थाश्रम में स्थित कोई भी भाई अथवा बहन वैराग्य होने पर जैन धर्मगुरूसे पाँच महाव्रतों की स्वीकृति के रूपमें जैन धर्मकी विधिके अनुसार दीक्षा लेता है। तब उसे मोह, माया, ममता उत्पन्न करे ऐसे संसार के परिग्रहसे विरक्त बनना पड़ता है। वह सरल, संयमी जीवन बितानेके लिए कटिबद्ध होता है। इसलिए दीक्षाके समय से ही भिक्षा लानेके लिए धातुपात्र नहीं, अपितु काष्ठ-लकड़ी के ही भिक्षापात्र उनको दिये जाते हैं। ये पात्र रंगसे रहित अथवा हाथ से रंगे हुए होते हैं। विहार-प्रवासमें साधु-वर्ग इन पात्रोंको कपड़े में बांधकर बादमें अपने कन्धे पर लटका कर चलते हैं। यहाँ प्रतीक के रूपमें तीन चित्र दिये है- (प्र. सं. १) अगले भाग में प्रायः सात पात्रों का ('एक के अंदर एक' इस प्रकारका ) समूह सेट दिया है। गोचरी के समय झोली बनाकर उसमें पात्रों को रखकर साधु भिक्षा लेने जाते है। इन पात्रोंमें विविध प्रकारकी खाद्य सामग्री लेते हैं। मुख्यरूपसे प्रवाही द्रव्य लेनेके लिए प्रतीक सं. २ में डोरा डाली हुई 'तरपणी' नाम से संबोधित तथा प्रतीक सं. में 'चेतनो' शब्दसे प्रसिद्ध पात्र बतलाया है। सामान्यतया तरपणी पर 'चेतनो' रखकर तरपणीको डोरी बांधकर बादमें पकड़कर उठाया जाता है। - इस प्रतीक में सिद्धशिला सूचक अर्धचन्द्राकार आकृति पर बैठी हुई सिद्धात्माके प्रतीक के रूपमें सिद्धमूर्ति को रखा है। ऊपर बताये गए केवलज्ञानी अरिहंत अथवा केवलज्ञान - त्रिकालज्ञानको प्राप्त वीतरागी ऐसे अन्य श्रमण-श्रमणियोंकी आत्माएँ संसारचक्रके परिभ्रमण रूप आठ कर्मोंका संपूर्ण क्षय करके, आयुष्य पूर्ण होने के साथ ही अशरीरी बनकर इस मनुष्यलोक की धरतीसे असंख्य योजन दूर ऊर्ध्वाकाशमें चौदह राजलोक के अन्तवर्त्ती स्थित सिद्धशिला पर बने सिद्ध स्थान पर पहुँच जाते है। ज्योतिमें ज्योति समाये उसी प्रकार उनके आत्मप्रदेश दूसरोंके आत्मप्रवेशों में समा जाते हैं। अनन्तकाल तक वे वहीं स्थित रहेंगे। अब उन्हें इस संसारमें पुनर्जन्म लेनेके लिये आना ही नहीं पड़ता। सिद्ध स्थानमें पहुँची हुई उनकी आत्मा अन्य सिद्धात्माओंके समान संपूर्ण शाश्वत अनन्त सुखोंका भोक्ता बनती है। इन सिद्धोंकी संख्या सदैव अनन्ती होती है। जैनोंके नवकार मंत्रमें 'नमो सिद्धाणं' पद द्वारा इन्हें द्वितीय परमेष्ठी पदमें स्थान दिया गया है। तीर्थंकरों अथवा अरिहंतोंके मोक्ष में चले जाने के बाद उनके शासन की धुरा 'आचार्य' वहन करते है। तीर्थंकर देव अपनी उपस्थितिमें अपने शासनका दायित्व आचार्यों को सौंपते हैं। तथा अपनी पर्षद् में उन्हें अग्रिम स्थान देकर उनका गौरव बढाते हैं। तीर्थंकरोंके मोक्षमें जानेके बाद चतुर्विध श्री संघका योग-क्षेम करनेका कार्य तथा उनके सिद्धान्तों, आदेशों तथा उपदेशोंके प्रचारका कार्य वे बराबर सम्हालते हैं। और वे सुचारू रूपसे संघका संचालन करते हैं। साथ ही वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इस पंचाचारका स्वयं पालन करनेवाले, करानेवाले और प्रचार करनेवाले हैं। वे शासनकी अनेक रूपोंमें प्रभावना करते है। जैनसंघ आचार्यपद के लिए बहुत सम्मान रखता है। इन्हें नवकार मन्त्र में 'नमो आयरियाणं' पद के द्वारा तीसरे परमेष्ठी पद पर स्थापित किया गया है। आचार्य के पश्चात् उपाध्यायका स्थान आता है। आगमविज्ञ उपाध्यायजी महाराज का कार्य साधुओं को ग्रहण तथा आसेवन की शिक्षा देना है। 'नमो उवज्झायाणं' पद के द्वारा नवकार मन्त्र में चौथे परमेष्ठी के रूपमें इन्हें स्थान प्राप्त हुआ है। यहाँ साधुओं को पाठ पढ़ाने की मुद्रा का प्रतीक दिया गया है। जिनको नवकार मन्त्रमें पाँचवाँ 'नमो लोए सव्वसाहूणं' पद के द्वारा पाँचवें परमेष्ठी पद पर स्थापित किया गया है वै । स्वकीय तथा परकीय कल्याण करनेवाले, पंचमहाव्रतधारी मुनिराज का ध्यान-साधना द्वारा आत्मसाधना करता हुआ प्रतीक यहाँ दिया गया है। विशेष परिचय ३९ वे प्रतीक में दिया गया है। ४८ से ५० तक के प्रतीकोंमें पाँचों परमेष्ठियोंके पैरके आगे साधुओंके चिह्न के रूपमें मान्य 'ओघा-रजोहरण' दिखाया गया है। जैन साधु-साध्वियोंकी अहिंसा धर्मके पालन में सहायक होनेवाला यह अनिवार्य उपकरण है। दीक्षाके समय दाता गुरु अत्यन्त उत्साह के वातावरण में इसे प्रदान करते हैं। यह रजोहरण ऊनकी डोरियों से बना हुआ होता है। इसके बिना साधु नहीं रह सकता। यह नित्यका अविरत साथी है। जब जब जैन साधु-साध्वीजीको आसन बिछाकर बैठना हो, तब तब जीव जन्तुओं की हिंसा न हो इस दृष्टिसे इस उपकरण द्वारा भूमिकी प्रमार्जनाशुद्धि करनी ही पड़ती है। इस वस्तुको जाते आते जैन साधु-साध्वीजी इसे बायीं बगलमें रखते है और बैठे हो तब एक ओर अपने पास रख देते हैं। दिगम्बर मुनि मयूरपिच्छका गुच्छ रखते हैं। स्थानकवासी तेरापन्थी साधु ऊनका गुच्छा रखते है, किन्तु उसकी लकड़ी बहुत लम्बी होती है। मुँहपत्ती अर्थात् सूती कपडे का विशिष्ट रूपसे तह किया हुआ वस्त्र जैनधर्मी सूत्रोच्चार करते समय वायुके जन्तुओंको अपने मुखसे निकलते. उच्च स्वरपूर्ण शब्दोंकी ध्वनिसे पीड़ा न हो, इसके लिए मुखके सामने रखते है। मुख्यरूपसे यह वायु के जीवोंकी होनेवाली सूक्ष्म हिंसासे बचनेका यह उपकरण है। ५३. चरवली, सूपडी, ये जैन साधु साध्वी के नित्योपयोगी चार उपकरण हैं। (१) ऊनके कोमल स्पर्शवाली 'चरबली'। इसका जल रखने के पात्र, लघुपात्र तथा दण्डासन, कम्बल - काष्ठ पात्रोका उपयोग करनेसे पूर्व उन्हें जीव-जन्तुओंसे रहित बनाने तथा प्रमार्जना-पूजनेके लिए होता है। जिससे सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवोंकी अहिंसा( अन्य उपकरण) रक्षा होती है। और यदि जीवजन्तु निकल आयें तो अहिंसाव्रती साधु-साध्वी इसे सम्हालकर सुरक्षित स्थान पर रख देते हैं। ( २ ) सूपड़ी '- यह रहनेके स्थान पर इकट्ठे हुए कूड़े-कचरे अथवा मुख्य रूपसे गोचरी - भिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भोजन मंडली का कूड़ा भरने के लिए उपयोग में आती है। (३) 'दंडासन' रात्रि के समय उपाश्रय में प्रकाश के अभावमें अंधेरा रहता है। नेत्रोंसे धरती दिखाई न देने के कारण गमनागमन की क्रिया में. जीवहिंसा की घटना न हो जाए इसके लिये भूमि की प्रमार्जना-शुद्धि करते हुए चलना चाहिए। खड़े खड़े पूजन हो सके तदर्थ लम्बी लकड़ीवाला, ऊनके गुच्छसे युक्त यह उपकरण प्रयुक्त होता है। कोई मयूर पिच्छका दण्डासन भी रखते हैं। (४) कम्बल- पाली शब्दसे पहचानी जानेवाली यह कमली मूर्तिपूजक साधु उपाश्रयसे बाहर जाता होता है, तब बायें कन्धे पर रखते हैं। ओढ़नेके लिए उपयोग करते है। प्रातः सायं बाहर खुले आकाशमें जाना हो तब, योगोद्वहन के तपमें, विद्युत आदिके सचित्त-सजीव प्रकाशसे होनेवाली जीव विराधना से बचनेके लिए, शरीरको ढंकनेके लिए इसका उपयोग किया जाता है। ८. यहाँ बतलाये गये उपकरण श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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