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ज्योतिषचक्रको स्थिर एवं गतिमान दोनों प्रकारका मानता है। जैन सूर्यको भी केवल एक न मानकर दृश्य और अदृश्य सृष्टिसे मिलकर असंख्य सूर्य और चन्द्रोंको मानते है।
-जैन लोग मानवजाति का बसेरा अढाई द्वीप (दो समुद्रोंके साथ २।। द्वीप) में मानते है। अढाई द्वीप अर्थात् जम्बूद्वीप, पातकी खण्ड और आघा पुष्कराध द्वीप। तीन द्वीपोंके बीच लवण और कालोदघि नामक दो समुद्र है। ये द्वीप और समुद्र लाखों योजन लम्बे-चौड़े है। इस अढाई द्वीपके बाहर असंख्य द्वीप तथा समुदोकी स्थिति जैन शास्त्र बतलाते है। अाई द्वीपमें प्रवर्तित ज्योतिषचक्र चर है और उसके बाहरका स्थिर है। मानवजाति की बस्ती अढाई द्वीप के अन्दर ही है, उसके बाहर नहीं।
सूर्यकी उपासनाके लिए गुजरातमें 'मोढेरा' गाँव का विख्यात कलात्मक शिल्पमंदिर खंडित अवस्थामे आज भी खड़ा है। तथा जैनग्रन्थ सूर्य और
चन्द्र दोनों स्वयं गतिमान है एवं स्वयं प्रकाशित है ऐसा व्यक्त करते है। ८६.चन्द्र- -सूर्यके समान ही यह भी एक प्रकारका ग्रह है। तथा जैन शास्त्रोके अनुसार यह पृथ्वीसे लाखों मील दूर है। यह स्थिर नहीं, अपितु चर-गतिमान
है। यह निस्तेज नहीं अपितु स्वयं प्रकाशित है। और यह प्रकाश स्फटिक रत्नवाले विमान का है। सूर्यका प्रकाश उष्ण है तो चन्द्र का शीत है। सर्वकी उपस्थितिमे अति तीव्र प्रकाशके कारण निस्तेज बना रहता चन्द्र प्रकाश सूर्यास्त होने पर इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष होता है।
- कवियोंने सूर्यके समान ही उपमालंकार में चन्द्र का अपार प्रयोग किया है। शान्त-प्रशान्त मुखवाली स्त्रीकी प्रशंसा करनेके लिए चन्द्रमुखीकी उपमा (खण्डोपमा) दी गई है। शरद पूर्णिमाकी महिमा चन्द्रकी शीतलता (रम्य आकर्षण) और माधुर्यादि के कारण ही है।
- कहा जाता है कि चन्दमा की किरणोंमेसे निकलनेवाले किरणामृत का पोषण धरती पर स्थित वनस्पतिसमुदाय प्राप्त करता है।
- द्वितीयाके चन्द्रमाको विविध कारणोंसे जैन, हिन्द. मस्लिम आदि प्रजा नमस्कार करती है। ८७.हंसयुगल- - हंसोंमें श्रेष्ठ हंस 'राजहंस' कहलाता है। इसका परिचय पहले दिया जा चुका है। चित्र स्पष्ट है। ८८. श्रीफल - ___ - श्रीफल बनस्पति जातिका एक सुप्रसिद्ध फल है। यह 'श्री' अर्थात् लक्ष्मीका अथवा लक्ष्मीको अर्पित किये जानेवाला फल है। यह लक्ष्मीका
प्रिय फल है। सभी भारतीयोंने इसको मंगल और सम्माननीय फलके रूपमें स्वीकृत किया है। मिन-भिन्न भाषावाले लोग इसे भिन्न-भिन नामोंसे पुकारते है। गुजरातमें छिलकेवाले श्रीफलको 'नारियल' कहते है। इसकी मूल उत्पत्ति दक्षिणके नारिकेल द्वीपकी होनेके कारण यह नाम प्रचलित हुआ है।
भारतमे प्राप्त होनेवाला अन्वर्थनामक यह श्रीफल शकुनशाली और मंगल फल होनेसे इसका धार्मिक और व्यावहारिक अनेक शुभ प्रसंगोंमें उपयोग होता है। प्रवास जाते हुए तथा नगर अथवा गृहप्रवेशके समय तिलक करके दोनों हाबोसे सम्मुखस्थ व्यक्तिके हाथोंमें श्रीफल दिया जाता है। विवाह के प्रसंग पर मुख्यरूपसे हाथमें रखा जाता है। घर, दुकान, कारखाने आदिके वास्तुके अवसर पर श्रीफल रखा जाता है तथा बादमें उसे तोड़कर उसके टुकड़े प्रसादरूपमे सभी खाते है। ऐसा करना अच्छा शकुन माना जाता है। यह मित्रता का वर्धक है। त्योहारों पर इसकी भेंट दी जाती है। जैनलोग तो अपने बड़े पर्वो पर इसकी प्रभावना-दान करते है। अर्थात् सभीको (व्यक्ति अथवा समुदाय की ओरसे) एक-एक श्रीफलका दान किया जाता है। और जैन मन्दिरमें की जानेवाली स्नात्रपूजा तथा बड़ी पूजाओंमें श्रीफल रखा जाता है। मन्दिरमें नैवेद्य के रूपमें प्रतिदिन श्रीफल रखनेवाले भी भाविक होते है। गुरूदेव के स्वागतमें गहुँलीके समय अथवा घर पधारे तब चौकी पर स्वस्तिक रच कर उसके ऊपर श्रीफल रखा जाता है। उपाश्रय में प्रवचन के प्रारम्भसे पूर्व धर्मगुरूके व्याख्यानपीठके आगे अक्षतोसे स्वस्तिककी गहुँली बनाकर उस पर श्रीफल रखकर
शुभेच्छा-प्रार्थना बोली जाती है। जैन-अजैन अपने इष्टोपास्य देवके मंदिरोंमें तथा लक्ष्मीजी आदि देव-देवियोंके मंदिरोंमें, पूजनविधिमे श्रीफलकी भेट रखी जाती है। शुभकार्य प्रारंभ के लिए भी श्रीफल भेट होता है। अनेक शुष, मंगल और इष्टफल सिद्धिके लापार्थ अनेक व्यक्तियोंको उपहारके रूपमें यह आदरपूर्वक दिया जाता है। __ - इन श्रीफलोंमें सामान्य प्रचलित श्रीफल दो-दो आँखोंवाले होते है, किन्तु एक आँखवाले श्रीफल एकाक्षी, तीन आँखोंवालेको त्र्यक्षी और चार आँखवालेको चतुरक्षी कहा जाता है। इन तीनों प्रकारवाले श्रीफलोको महिमाशाली कहा गया है। ऐसे श्रीफल घरमे योग्य स्थान पर, शुभ समयमे पधारनेसे घरमें लक्ष्मी, शान्ति, पुत्रप्राप्ति, यश आदिका लाभ होता है। इन कारणोंसे सैकड़ों घरोंमें श्रद्धालु भारतीय विधि-विधान पूर्वक एकाक्षी, यक्षी आदि श्रीफल रखते है, तथा उसकी पूजा और जप करते है। गुजराती चैत्र शुक्ला अष्टमीके दिन इसकी प्रमुख विधि की जाती है। इस श्रीफलसे सम्बन्धित जानकारी और इसके विधि-विधानसे सम्बद्ध अनेक कल्पग्रन्थ जैन-अजैन विद्वानों द्वारा मुद्रित-अमुदित अवस्थामें विद्यमान
है। इस फलके खानेका प्रचलन दक्षिण भारतमें बहुत ही है। विशेष गरुगमसे समझे। ८९. हंसदीपक - राजस्थानकी बनावटका, लटकाये जा सकनेवाला धातुका यह दीपक है। ९०. शतदल सौ पंखुडियोवाला कमल, लक्ष्मी-सरस्वती आदि कतिपय देवियोंको शतदल अथवा सहस्रदलवासिनी अर्थात् सौ पंखुड़ियों अथवा हजार पंखुड़ियों वाले
कमल- कमल पर विराजनेवाली कहा है। (विशेष परिचयके लिये देखिये प्रतीक सं. ११) पंचांग पाँच अगों द्वारा किया जानेवाला प्रणिपात अर्थात् नमस्कार विविध धर्मोमें देव, गुरु अथवा बड़े-पूज्य व्यक्तियोंके प्रति विनय, नम्रता आदिका भाव प्रणाम
सूचित करनेके लिए बन्दन, प्रणाम अथवा नमस्कार करनेकी विविध प्रथाएँ- प्रकार प्रचलित है।
जैनधर्ममें वन्दनकी विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इस तरह तीन प्रकार की बताई है, जिन्हें जैन परिभाषामें क्रमशः (फटा) फिट्टा, स्तोम तथा द्वादशावर्तकी संज्ञा दी गई है।
(१) देवमूर्ति दिखाई देने पर णमो जिणाणं बोलते हुए शरीरकी अर्यावनत मुद्रासे अर्थात् दोनों हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर वन्दन करना और इसी तरह गुरुका दर्शन होनेपर मत्वरण बंदामि बोलकर नमन करना। इन दोनों प्रकारोंको 'फिट्टा' वंदन कहते है एवं इसे 'जघन्यवन्दन' के नामसे सम्बोधित किया है। (२)प्रणिपातसूत्र जिसका अपरनाम 'योभवंदण' सुत्त है, उसे बोलकर देव-गुरुको पूर्णावनत-मुदा अर्थात् पंचांग भूमिस्पर्श द्वारा भक्तिभावपूर्वक प्रणिपात करनेको योभवंदण कहते है। इसीको मध्यमवन्दन कहते है। वर्तमान सामाचारी के अनुसार आजकल अब्भुढिओ-पूर्वक किये जानेवाले वन्दनको 'मध्यमवन्दन' कहते है। (३) 'सुगुरुवंदण' सुत अर्थात् गुरुवन्दणासूत्र बोलते हुए बारह आवोंके साथ 'यथाजात' (-जन्मसमयकी) मुद्रासे बन्दन करनेको द्वादशावर्त-वन्दन कहा जाता है। इसका समावेश उत्कृष्ट वंदनमें होता है। जिनमूर्ति अथवा
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