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७६. ५ -
७७. ७८. ॐ ॐ - ७९. नन्द्यावर्त पाँच स्वस्तिकों के साथ
८५. सूर्य -
१७८Education International
विषमता उत्पन्न हो जाए तो पृथ्वी पर अथवा मानवजाति पर भयंकर विपत्तियाँ भी आने लगती हैं। मुख्य रूपसे भूकम्प और प्रचंड तूफ़ान इसके जीते जागते प्रमाण हैं। इसलिए राज्य सरकारों और वैज्ञानिकोंको तथा मानवजातिको इन तत्त्वोंके साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए तथा इनकी समतुला एवं सुरक्षा बनी रहे ऐसी मर्यादाका पालन करना चाहिए जिससे इस धरती के प्रकोप तथा विपत्तियोंसे प्रजा बच सके।
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- मानवदेहमें भी ये तत्त्व विषम न हों इसकी यदि पूरी सावधानी रखी जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अपने तन मन का आरोग्य सम्हालकर आत्माकी स्वस्थता प्राप्त कर सकता है।
-प्रतीकमें पाँचों तत्त्वोंको उनके नामके साथ दिखाया है। भारतीय विद्वानोंने इन तत्त्वोंका परिचय प्राप्त किया जा सके इसके लिए भिन्न-भिन्न आकारोंकी कल्पना की है। पृथ्वीका समचतुष्क-चतुरस्त्र आकार, जलका अर्धचन्द्राकार, अग्निका त्रिकोण आकार वायुका षट्कोण तथा आकाश का गोल आकार माना गया है। इन आकारोंकी कल्पना सहेतुक है।
यह एक मन्त्र बीज है। इस पृष्ठमें तीन प्रकारके ॐ के प्रतीक दिये हैं। ७६ क्रमांक का आँकार जैनोंमें प्रयुक्त होता है। शेष अन्य दोनों प्रकार के ७७-७८ क्रमांक के प्रतीकोंवाले ओंकार मुख्यरूपसे वैदिक हिन्दू आदिमें विशेष रूपसे प्रयुक्त होते है। परंतु कुल मिलाकर विश्वके अधिकांश भागकी जनता इन आँकारोंके प्रतीकोंसे परिचित है यह निर्विवाद है। अब तो पाश्चात्य लोग भी औंकार की ओर आकर्षित हो रहे है।
जैन धर्मके अनुसार औंकारकी आकृति वस्तुतः देखी जाए तो लिपि भेदके आधार पर है। नागरी लिपिमें लिखित जैन प्रतियोंमें ओ स्वर प्रतीकमे बताये अनुसार मिलता है, इसलिए हमारे यहाँ इस रूपमें लिखा जाता है। बादमें उसमें चैतन्य शक्ति लानेके लिए उसे मन्त्रबीज बनाना चाहिए, इसलिए उस पर 'अर्धचन्द्राकार' वर्णकी आकृति, उस पर 'बिन्दु' वर्णकी आकृति और उस पर नाद' वर्ण की आकृति रखी जाती है। इनके रखने से वह मन्त्रबीज बनता है। तथा बादमें उस बीजका जप आदिमें उपयोग किया जाता है। यहाँ एक विवेक रखना आवश्यक है कि ऊपर त्रिकोणके आकार में जो 'नाद' बताया गया है, उससे रहित ओंकार यन्त्रादिकमें लिखा जाता है, उसका जप भी होता है। वस्तुतः तो (नाद रहित का) केवल बिन्दु सहित का आँकार ही उच्चारणमें, लेखनमें तथा जपमें अधिक प्रयुक्त होता है। ऐसा होने पर भी अमुक कार्योंके प्रसंग पर दोनों प्रकारोंको मान्य रखा गया है। ऋषिमंडलके यंत्रके केन्द्रमें रहनेवाला ह्रींकार नाद सहित ही है ऐसा निर्विवाद समझना चाहिये तथा सिद्धचक्र बृहद् यन्त्र में केन्द्रस्थ अर्ह भी नादयुक्त ही निर्विवाद रूपसे है ऐसा समझें।
-भारतमें हजारों मनुष्य 'ॐ' शब्दका निरन्तर जप करते हैं, उसका प्रभाव अपूर्व है। साधु, सन्तों एवं महर्षियोंका यह मुख्यरूपसे प्रिय मन्त्र है। प्रत्येक मन्त्रके प्रारंभ में (प्रायः) इसका स्थान होता है। दीर्घकालसे इसकी व्यवस्थित तथा गुरुगम-पद्धतिके अनुसार की गई साधना साधकको आत्मसाक्षात्कार - आत्मदर्शन कराती है तथा कुण्डलिनी शक्तिको जागृत कर परमसमाधि-शान्तिको देती है। इसके अतिरिक्त साधक जन आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों प्रकारकी सिद्धियोंको इसके द्वारा अवश्य प्राप्त कर सकते हैं, यह अनेक व्यक्तियोंकी अनुभवसिद्ध बात है। जैन मन्त्रज्ञ केवल मोक्षके लिए किये जानेवाले जपके बदले आदिमें ॐ लगाकर मन्त्र जपनेका निषेध करते है, यह एक सूचक बात है। इस ॐ बीजको मन्त्रविदोंने भिन्न-भिन्न बीज नामोंसे सम्बोधित किया है। अजैन विद्वानोंने ॐकार पर स्वतन्त्र उपनिषदोंकी रचना की है, ॐकारके प्रभाव पर ग्रन्थ भी लिखे गए है।
८०. कलश -प्रतीक संख्या २ के समान समझे। ८१. स्वस्तिकपंचक - परिचय प्रतीक संख्या ८२. गांधर्व - जैन मंदिरोंमें पाषाणसे ८३. अरिहन्ताकृति - विकस्वर कमलासन पर पद्मासनसे बैठी हुई तीर्थंकर- जिनकी मूर्ति ।
८४. ध्वजदण्ड - - जैनमंदिरोंके शिखर पर चढाई जानेवाली दण्ड सहित ध्वजा, प्रतिष्ठाके समय मन्दिर और उसकी प्रतिष्ठा सदैव विजयी रहे, इस दृष्टिसे ध्वजादण्ड
दोनों संख्यावाले ॐ कारके प्रतीक आलेखनकी विविधता दिखानेके लिए दिये है। (परिचय प्रतीक ७६ के समान है।) केवल जैन संस्कृतिमें प्रसिद्ध (पाँच स्वस्तिकोंके साथ) केन्द्रमे स्थित नन्द्यावर्त नामक एक मंगलाकृति ।
यह नन्द्यावर्त नौ कोणोंसे पूर्ण होता है। इस आकृतिको अत्यन्त प्रभावशाली तथा फलदायक कहा है। अभिनव जैन मूर्तियोंकी प्राणप्रतिष्ठाके समय आवश्यक रूपसे तथा संघयात्राके प्रारम्भ में मंगल - कल्याणके निमित्त और कार्य निर्विघ्न रूपसे सम्पन्न हो इस दृष्टिसे नन्द्यावर्त की पूजा की जाती है। 'आचार-दिनकर' तथा अन्य प्रतिष्ठाकल्पोंमें इसके लघु-बृहत् प्रकारकी पूजाविधि के अधिकार दिये है। तथा साथ ही इसके वस्त्र, पाषाण आदि पर अंकित पूजन-पट भी बहुत-से प्राप्त है। नन्द्यावर्तके पटके मध्यमें नन्द्यावर्त आदि होते है। और आस-पास घूमते हुए पंचपरमेष्ठी आदि तथा देव देवियोंके अनेक वलय बनाये हुए होते है।
-प्रतीक परिचय संख्या २ में अष्टमंगलकी जो बात कही गई है, उन आठमेसे यह तीसरी संख्यावाली आकृती है।
६१ के समान। केवल यहाँ सुन्दरता लानेके लिए पाँच स्वस्तिकोंका संकलन करके दिखाया है। बनाये जानेवाले मृदंग-ढोलकवादक गान्धर्व।
पर ध्वजा फरकानेकी विधि है। यह ध्वजा प्रत्येक सालगिरह के दिन पुरानी बदलकर नई चढाई जाती है।
- यह जैन दृष्टिसे आकाशवर्ती एक ज्योतिष चक्र का एक केन्द्रीय ग्रह है। यह दिनकर-सूर्य और उसकी अनेकशः उपयोगिता सर्व विदित है। सूर्यके उदय होते ही विश्वका अन्धकार दूर होता है तथा संसारमें सभी व्यवहार आरंभ हो जाते है। तथा अस्त होनेपर अधिकांश भागके व्यवहार मन्द होने लगते है। सूर्य विकासी आदि कमल सूर्यके कारण ही खिलते हैं। उसीके सहारे विकसित होते है। कवियोंने सूर्यका उपमालंकार के रूपमें विशाल उपयोग किया है। ज्योतिषशास्त्र में इसे केन्द्रीय स्थान दिया गया है। मुख्य माने जानेवाले नव ग्रहोंमें इसका स्थान पहला है। जैन खगोल शास्त्री दिखाई देनेवाले सूर्यको स्फटिक रत्नका बना हुआ विमान मानते है और इस रत्नका ही प्रकाश पृथ्वी पर आता है ऐसा कहते है। सूर्य नामवाला देव इस विमानमें रहता है। जैन ग्रन्थोंमें आजकी वैज्ञानिक मान्यतासे भिन्न रूपमें पृथ्वी से पहले तारा, बादमें क्रमशः सूर्य, उसके अनन्तर चन्द्र ग्रह आदि इस प्रकार क्रम बताया है।
- प्रातः कालमें अनेक अजैन लोग आसन-पूर्वक सूर्यके सामने खड़े रहकर प्रातः सूर्य नमस्कार करते है। जैन, बौद्ध तथा वैदिक तीनों ही धर्मोमें सूर्यको ग्रहदेव मानकर उसकी पूजा, जप, ध्यान, उपासना आदि करनेके विधान बताये है। जैनोंकी शान्तिस्नात्र आदि की विधिमें नवग्रह पूजन अवश्य करना ही पडता है। जैन धर्म दृश्य सृष्टिकी अपेक्षा अदृश्य सृष्टिको करोडों गुनी मानता है। द्वीप और समुद्रोंको असंख्य मानता है। तथा
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