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स्थापनाचार्यजी के समक्ष चार अथवा आठ बोई (स्तुति) बोलते हुए किये जानेवाले बृहद् बन्दनको देववन्दन कहते है।
यहाँ दिया गया चित्र आबालवृद्ध-प्रसिद्ध 'खमासमण' शब्दसे अभिहित पंचांग प्रणिपातका है। ९२. सामायिक- 'सम' तथा 'आय' इन दो शब्दोंके योगसे संस्कृत भाषा के नियमसे सामायिक शब्द बना है। सम का अर्थ है शान्ति-समता। आय का अर्थ है (श्रावकका) लाभा जिससे आत्मामें-जीवनमें शान्ति, समता जैसे मूल-गुणोंका लाभ हो ऐसी कोई बात अथवा किया जैनोंने इसको अपना पारिभाषिक
'सामायिक' ऐसा नाम दिया है। यह नाम तथा इसका कार्य जैनोंके घर-घर में सुविख्यात है। 'सामायिक' कैसे करना चाहिए, इसका एक विधान है। इसकी समय मर्यादा है। इसका विधान 'प्रतिक्रमण सूत्र' नामक ग्रन्थमे बतलाया है। सामायिकका समय सामान्यरूपसे दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनट का है। 'सामायिक' प्रतिदिनके चालू वेषमें नहीं किया जाता है। इसके लिए पुरुषको धोती और दुपट्टा इस प्रकार दो, स्त्रीको घाघरा, चोली तथा साड़ी इस प्रकार तीन वस्त्र पहनने होते है। ये वस्त्र मोह, ममता अथवा आसक्ति जागृत न हो ऐसे साधारण, किन्तु शौचादिके समय नहीं पहने हुए शुद्ध पहनने चाहिए। वस्त्र-शुद्धि रखते हुए, अपने मनको शुद्ध करके अर्थात् संसारी विचारोंसे रोककर-धार्मिक अथवा आध्यात्मिक विचारभावनाकी ओर लाना होता है। बादमें भूमि पर गरम (ऊन का) आसन बिछाकर बैठना और अपने समक्ष नाभिसे ऊपर रहे इस ढंगसे पुस्तक आदि रखकर उसकी सूचित विधिके अनुसार स्थापनाको स्थिर करके, दोनों हाथ जोड़कर विधिवत् सूत्रोच्चार करके दो घड़ी-४८ मिनट तक बैठना होता है। इन ४८ मिनटोंके बीच स्वाध्याय करना चाहिए अथवा धार्मिक ज्ञान सीखना चाहिए। धार्मिक चरित्र अथवा आध्यात्मिक ग्रन्थोंका वाचन करना चाहिए। जप, पठन-पाठन तथा अन्तरशुद्धिके लिए आन्तरिक खोज आदि करना होता है। तथा किसी भी प्रकारके घरके व्यापार अथवा दुनियादारी की संसारी बाते सोचना, वैसी बाते करना तथा वैसी बाते सुननेका सर्वथा निषेध है। कटासणा के साथ नितम्ब भाग जुड़ा ही रहना चाहिए। और खड़ा होना अथवा ऊँचा-नीचा भी नहीं होना चाहिए। खास आवश्यकता पड़े तो बायाँ अथवा दाहिना पैर (नितम्ब भाग ऊँचा न हो जाय, इसका ध्यान रखकर) ऊँचा कर सकते है। संक्षेपमें इस समयके बीच धार्मिक-आध्यात्मिक जीवनका आनंद लूटना होता है। संसारी चिंता छोड करके आत्मिक-आध्यात्मिक चिन्तन करना होता है। मनोमंचनपूर्वक स्वदोषका दर्शन-परीक्षण करना होता है। जिससे जीवनशुद्धि प्रकट हो और समता-क्षमाभाव का सद्गुण विकसित हो।
- ४८ मिनट की मर्यादावाली प्रतिज्ञा पूरी होने पर प्रतिज्ञासे मुक्त होनेके लिए 'सामायिक' पारनेकी कुछ विधि की जाती है। वह हो जाने पर सामायिक व्रत पूरा होता है।
- संसार की आधि-व्याधि और उपाधिसे ग्रस्त, मन, वचन और कायाके त्रिविध तापसे सन्तप्त, अशान्त, अस्वस्थ, चिन्ता, भय और अशान्तिपूर्ण जीवन बिताते हुए जीव आजके विषम युगमे यदि प्रतिदिन कम से कम दो घडी का यह सामायिक' व्रत करें तो कर्मका संवर, निर्जरा अथवा पुण्य बंध होगा। ब्लड-प्रेशर अथवा हृदयरोगका भय नहीं सताएगा। प्रतिदिन न हो सके तो सप्ताहमें एक दिन भी सामायिककी आध्यात्मिक वायु ग्रहण करेंगे तो भी वे अनेक लाभोको प्राप्त करेंगे।
सामायिक में बैठा हुआ श्रावक 'समणो इव' साधु के समान कहा गया है। सदाके लिए श्रमण-साघुजीवन स्वीकृत न कर सके वे दो घड़ी जितना त्यागमार्गका आस्वाद-आनन्दका अनुभव करेंगे तो किसी जन्ममें उत्पन्न संस्कार सर्व विरतिपूर्ण त्यागका पूरा संस्कार प्राप्त कर सकेंगे। इसी
दृष्टिसे श्रावक द्वारा पालन किये जानेवाले बारह अणुव्रतोंमे सामायिकको नौवें व्रत' में सम्मिलित करके 'वत' के रूपमें उसकी प्रशंसा की गई है। ९३. सामायिक- यह यावत्कथित नामका सामायिक व्रत श्राविकाको भी करना चाहिए। इसलिए यहाँ उसका प्रतीक दिया गया है। इस प्रतीक में दो घडी के समय (श्राविकाका) को बतलानेवाली, प्राचीन समयमें काममें ली जानेवाली रेतीकी घड़ी भी दिखाई गई है। सामायिकमे कैसे बैठना चाहिए मात्र यह दिखानेके लिए ही
यह चित्र दिया है। ९४.कलश- आँखें तथा दोनों ओर दुपट्टेवाला कलश। इस प्रकारका कलश वर्षोंसे मुख्यरूपसे आमन्त्रित की जानेवाली कुंकुम-पत्रिकाओं तथा काडौंमें विशेष
रूपसे प्रयुक्त होता है। (परिचय प्रतीक सं. २ के अनुसार) ९५. घण्टा- यह मिश्र धातुओंसे बना हुआ होता है। यह घण्टा मस्जिद जैसे स्थलोंको छोड़कर प्रायः समस्त धोके देव-मन्दिर-देवालय अथवा चर्चामें लटकाया
रहता है। इससे घण्टा, मंदिर का एक अनिवार्य अंग होनेके अतिरिक्त मन्दिर अथवा देवालयके प्रचारका एक सूचक प्रतीक बन गया है। प्रार्थना-स्तुतिके प्रारंभमें तथा मन्दिरसे बाहर निकलते समय अन्तमें ३, ७ अथवा ९ बार घण्टा बजानेकी प्रथा है।
- केवल दर्शन करनेवाले जैन मंदिर दर्शन करके वापस निकलते समय तथा पूजा करनेवाले पूजक पहले दव्यपूजा करनेके पश्चात्, चैत्यवंदन, स्तुतिप्रार्थनादिरूप भावपूजा करके जब बाहर निकलें तब आनन्द व्यक्त करनेके रूपमें पूर्णाहुति सूचक तथा मंगल प्राप्तिके लिए घण्टेकी मंगल ध्वनि करके मंगल भाव हृदयमें भरकर बिदा लेता है।
- सॉनको आरती और मंगलदीपक उतारते समय भी सारे भारतके मंदिरोंमे घण्टानाद किया जाता है। इस नाद को मंगलनाद माना है।
- इसके अतिरिक्त व्यावहारिक स्थलोंमें, पुलिस थानेमें, सैनिक स्थलोंमें, स्कूल, कालेज, औषधालय, कारखाने आदि सार्वजनिक स्थलोंमें तथा अन्य अनेक स्थलों में यह समयकी सूचना देने अथवा भयकी सूचना देनेके लिए भी उपयोगमें आता है। छोटी घण्टियाँ तो पूजा-पाठमे साँझ-सबेरे
अनेक घरोंमें झनझनाती रहती है। ९६.होमवेदिका- केवल कच्ची मिट्टी से बने हुए तीन विभागोंको बतानेवाली यह होमवेदिका है। अजैन इसे यज्ञवेदिका कहते है। यह होमकुण्ड आदि नामोंसे भी
प्रसिद्ध है। जैन मन्त्र अनुष्ठान तथा प्रतिष्ठादि विधियोंमें होम करनेके विधान है। इतना होने पर भी जैनोंमें इसका स्थान अजैनोंकी अपेक्षा बहुत कम है। कुछ अनुष्ठान अथवा जपकी साधनाके अन्त में उसका सात्विक वस्तुओंसे होम किया जाता है। किन्तु होमके प्रक्षेप दब्य मुख्यरूपसे शुष्क वनस्पति आदि प्रधान होते है और जीव-जन्तु रहित शुद्ध होते है।
- साथ ही किसी भी मन्त्रकी साधना उसके दशांश हवन के बिना पूर्ण फल नहीं देती है। और अन्य कुछ अनुष्ठानोंके लिए भी ऐसा ही है।
इनमें देवीके अनुष्ठानोंमें तथा उसकी प्राणप्रतिष्ठा करनी हो तब होम करना अनिवार्य होता है। ९७. अरिहंत- प्रवचन-देशना मुद्दासे सिंहासन पर बैठी हुई आकर्षक अरिहत जिनमूर्ति। इनके चरणकमल भद्रासन पर स्थित है। ९८. त्रिरत्न - मथुराके स्तूपमें ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप विद्वानोंके कथनानुसार त्रिरत्नके प्रतीक के रूपमें प्रसिद्ध चिह्न । सांची के बौद्ध स्तूपमें ऊपर के भाग
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