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७१. स्थापनाचार्य - भगवान महावीरने अपने संघ समुदायको चार विभागोंमें विभक्त किया था। जिनमें क्रमशः (१) साघु, (२) साध्वी, (३) श्रावक और (४) श्राविका (प्रचलित नाम ये चार नाम रखे गये। समस्त जैन समुदाय इन चार विभागोंमें ही आ जाता है। 'ठवणी') इन चारों अंगोंके व्यक्तियों को कोई भी धर्मानुष्ठान करना हो तब प्रत्येक क्रियाकी साक्षीके रुपमें प्रतीकर्मे बताये गये अक्षके स्थापनाचार्य
रखने पड़ते हैं। इनकी साक्षी में ही समस्त धर्मक्रिया जप-ध्यानादि किये जाते है। चार पायोंवाली विलक्षण बैठकवाली घोड़ी को सामान्य व्यवहारमें 'ठवणी' कहते है। और इसके ऊपर एक पोटली होती है जिसे स्थापनाजी कहते है। इस पोटलीमें विविध आकार-प्रकारके दो इन्द्रियवाले निर्जीव बने हुए अक्ष जातिके जीवोंकी देहके शरीर पत्थर जैसे वजनदार होते है और वे पंचपरमेष्ठी की स्थापना के रूपमें होनेसे पाँच की संख्या में होते हैं तथा ये स्थापनाचार्यके नामसे सम्बोधित किये जाते है। यद्यपि आजकल तो 'ठवणी' शब्द से ही स्थापनाचार्य समझ लेने की गलत प्रथा चल पड़ी है परंतु ठवणी और स्थापना दोनो पृथक्-पृथक् वस्तुएँ है।
स्थापनाचार्यरुप अक्षोके गुण-दोषोंका एक कल्प है। इस कल्पग्रन्थमें उनके रंगोंके आधार पर अनेक लाभ-हानियाँ बताई गई है। इनके सुलक्षण देखकर ही इनकी जलादिसे शुद्धि, पवित्र मन्त्राक्षरोंसे अभिमन्त्रित करके पंचपरमेष्ठीके प्रतीक के रूपमे इनकी स्थापना करके रखी जाती है। बादमें मुँहपत्ती आदि वस्त्रसे ढंक कर झोली जैसी पोटली बांधकर रखा जाता है। इसके आलम्बन के आधार पर समस्त क्रियाकांडका व्यवहार होता है।
इस स्थापनाजी की पोटली प्रातः और सायंकाल दो बार खोलकर इसकी थोडीसी पाठविधि मुँहपत्तीसे प्रतिलेखनापूर्वक साधु-साध्वियों को प्रतिदिन अवश्य करनी होती है। केवल नूतनवर्षके दिन इनका एक बार अभिषेक करके पुनः प्रतिष्ठा की जाती है। इन्हें शास्त्रीय शब्द में 'अक्ष' कहते है। इनमें यदि किसी समय दक्षिण-आवर्त-आंटेवाले मिल जाएँ तो रखनेवाले व्यक्ति की अत्यन्त प्रभाव-महिमा बढ़ने लगती है, किन्तु ऐसा मिलना अति दुर्लभ होता है।
जैन समाजमें स्थापनाका प्राकृतरुप 'ठवणा' होनेसे इसे 'ठवणी' भी कहा जाता है। संक्षिप्त नामके रुपमें 'आचार्यजी' भी कहते है।
-- यहाँ दिया हुआ प्रतीक मध्ययुगमें कुछ कारणसे बड़ी ठवणी रखनेकी प्रथा थी उसकी झाँकी करानेवाला है। इस ठवणीके पाठेमें पुस्तककी पोथी रखी है, फूदेवाली 'चाबखी'-डोरी लगाई है वह भी दिखाई देती है। यह ठवणी रखनेकी प्रथा जैन मूर्तिपूजक समाजमें ही है।
- यह ठवणी मुख्य रूपसे चन्दन आदिके काष्ठकी, हाथीदांत की पसंद की जाती है। किन्तु आजकल प्लास्टिक का भी प्रचलन बढ़ गया है। ७२.बाजोठ- - इसमें तीन बाजोठ,चौकियाँ अथवा पीठे है। चित्रमें बताये हुए क्रमसे ही इन्हें रखा जाता है। इसमें समवसरणके तीन प्रकारोंकी भी कल्पना की
जाती है। ये चौकियाँ या बाजोठ स्नावपूजा तथा शान्तिस्नात्रादि अनुष्ठानोंके प्रसंगमे इन पर भगवानको पधरानेके लिए प्रयुक्त होते है। इसके अतिरिक्त उपाश्रयमें होनेवाले जैन साधुके व्याख्यान के समय व्याख्यानपीठ के निकट वक्ता के सामने स्थापनाचार्यजी रखनेके लिए भी उपयोग
होता है। समस्त भारत में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदायमें यह प्रथा मुख्यरूपसे प्रचलित है। ७३. प्रवचन मुद्रा- 'मुद्रा' अर्थात् विशिष्ट प्रकारसे की जाने वाली एक आकृति । यहाँ हाथ और उसकी अंगुलियों द्वारा बनाई जानेवाली आकृतिकी बात होनेसे
उसकी फलित व्याख्या यह होती है कि विविध प्रकारके आकारोको बनाने के लिए हाथ अथवा अंगुलियों को एक विशेष रूपसे मोडना अथवा रखना, इसका नाम है मुद्दा। हाथ-पैर के विशिष्ट प्रकारके निश्चित आकारपूर्वक जपे जानेवाले मन्त्रादि में उस उस मुद्रा के आकारसे एक शक्ति उत्पन्न होती है। तथा यह भी जानने में आया है कि अमुक आकारों के प्रति देवताओं का आकर्षण भी होता है। इन कारणोंसे मुद्राएँ भी मानवजातिके कल्याणमें सहयोगी बनती है।
- यहाँ दी गई मुद्राका नाम प्रवचन-मुद्रा है। इस मुद्रा में जैन तथा अनोकी दृष्टिसे भी अनेक विकल्प होते है। - ये मुद्राएँ ग्रन्थों में अनेक प्रकारकी बताई गई है किन्तु अतिप्रसिद्ध और अधिक उपयोगमे आनेवाली मुद्राएँ प्रायः१२० से ३०है। - प्रवचन अर्थात् व्याख्यान तथा मुद्रा अर्थात् उस प्रसंग पर रखी जानेवाली दोनों हाथों सहित अंगुलियों की आकृति, वह है प्रवचन-मुदा।
- तीर्थंकरों तथा आचार्योको ध्यानके समय यह मुदा रखनी पड़ती है। जबकि आज तो यह प्रथा नहीं रही है। आजकल तो बहुधा शिल्पमूर्तियोंमें ही इसका स्थान सुरक्षित रहा है।
- यह मुद्रा एक ही प्रकारकी नहीं है अपितु चार-पाँच प्रकारकी वर्णित है। यहाँ इसका एक ही प्रकार दिखाया गया है।
- मन्त्रसाधनामें कुछ जप हाथकी कथित मुद्रा करके ही जप करनेका विधान है। जैनाचार्य आज भी सूरिमंत्र आदि के जपमें मुद्राओंका प्रमुख रुपसे उपयोग करते है।
- मुद्दापूर्वक भी जप सिद्ध करना पड़ता है। यह जप बैठे-बैठे और खड़े-खडे दोनों प्रकारोंसे किया जाता है।
- मुद्रा मन्त्र साधना अथवा मन जपका एक अंग ही है। मुद्रारसिक साधक इसे महीनों तक अथवा वर्षों तक इसके आम्नाय का पालन करके उन मुद्राओको करते हुए जपादि कर के मुद्दाकी आकृति को सिद्ध बनाते है। तथा मुद्राओंके सिद्ध हो जाने पर वे मुद्राएँ इष्टानिष्ट प्रसंग
पर सफलता देनेवाली बनती है। भूलसे भी मुद्राओको कोई सामान्य कोटिकी न समझे। ७४. गरुडमुद्रा - यह मुदा जैन अंजनशलाका-प्रतिष्ठा की विधि, अठारह अभिषेक आदि प्रसंगों पर की जाती है। सर्पका 'विष उतारनेका मन्त्र गरुडमुदाके साथ
सिद्ध किया जाता है और बादमें जहर उतारनेके समय उसका (मन्त्र-मुदाका) उपयोग किया जा सकता है।
प्राचीन समयमें कौन-कौनसी उपासनाएँ किन-किन मुद्राओके साथ करनी चाहिए और ऐसा करनेसे कौन-कौनसी सिद्धियाँ मिलती थी? इस
सम्बन्ध कतिपय उल्लेख, ग्रन्थोंमें मिलते है। (विशेष परिचय के लिए देखिये प्रतीक सं. ७३) ७५. पंचतत्त्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच महातत्त्व है जिन्हें 'पंचमहाभूत' भी कहते है। ये पाँचों तत्व समग्र विश्वमें अर्थात् पूरे ब्रह्मांड में
सर्वत्र व्याप्त है। इस विश्वके समग्र व्यवहार के संचालनके मूलमें ये ही तत्त्व काम कर रहे है। ये तत्व यदि न हों तो यह जगत भी न हो।
विश्वके संचालनमें ये तत्त्व अवर्णनीय और महान् भाग ले रहे है। तब इन तत्त्वोका उपकार और इनकी महत्ता कितनी अपार है यह स्वयं समझमें आने योग्य बात है। ये तत्त्व हमारी देहमें भी स्थित है। अरे! चैतन्यरूप प्राणीमात्र में ये है। संसारी जीवोंके शरीर इन पंच तत्त्व (अथवा पंचभूतों) से ही बने हुए है। ये तत्त्व विश्वमें अथवा शरीरमें सम रहे अथवा समतोल रहे तो उसकी व्यवस्था सुचारू रूपसे चलती है, पर यदि इनमें ११. मुद्राओंकी जानकारी निर्वाणकलिका आदि ग्रंथोंमें दी गई है।
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