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५४. कटासना, जैनधर्म की शास्त्रीय परिभाषा में जैन परिवारके पुरुषवर्गको 'श्रावक तथा स्त्रीवर्गको 'श्राविका' कहा जाता है। सामायिक, व्रत, प्रतिक्रमण और मुँहपत्ती, चरवला- पौषध आदि व्रतोके आचरणमे इनमें से दो अथवा तीनों उपकरणोकी अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। (श्रावक, श्राविकाओं
भावका", कटासना (कटासन) अर्थात् बैठनेका आसन। यह ऊनका अर्थात् अहिंसा धर्मका पालन हो इसके लिए सुकोमल गरम कपडे का रखा जाता के उपकरण)
है। इस पर बैठकर विरति-त्याग धर्मकी क्रियाएँ की जा सकती है। किन्तु केवल भूमि पर बैठकर इन क्रियाओको करनेका सर्वथा निषेध है। इसमें मुख्य हेतु जीवदयाके पालन का ही है। इसलिए सूती आसनका निषेध है। २. मुँहपत्ती-(मुख के समक्ष रखने का वस्त्र), परिचय के लिए देखिये प्रतीक सं. ५२। ३. चरवला-यह ऊनके गुच्छेसे बनाया हुआ सूक्ष्म जीवोंकी अहिंसा-दया पालन करनेका एक सुकोमल साधन है। दो घड़ीके-४८ मिनट की मर्यादावाले-सामायिक व्रतमे कटासनेसे न उठनेकी प्रतिज्ञा करके बैठा हुआ ब्यक्ति नितम्ब-पृष्ठभागसे ऊँचा भी नही हो सकता है। इसमें प्रतिक्रमणकी क्रिया करनेके लिये खड़ा होना हो, तथा पौषध प्रतिक्रमणादिक क्रियामै शौचादि क्रियाके लिए जाना पड़े - संक्षेपमें किसी भी कारण उठना-बैठना गमनागमन करना पड़े, तो यह चरवला यदि न हो तो कुछ भी नहीं हो सकता। इसके लिए चरवला अनिवार्य रूपसे होना ही चाहिए। (इस चरवलेका उपयोग मच्छर उहाने, दीवार का सहारा लेकर बैठने, यथेच्छ चेष्टा अथवा आराम करनेके लिए कदापि इसका उपयोग नहीं किया जाए, यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिए। इससे शरीर पर चिपके हुए तथा जमीन पर विद्यमान सूक्ष्म जंतुओंको दूर किया जाता है। कहीं इन जीवोंकी हिंसा नहीं हो जाए इसका अहिंसावादी साधक को पूरा ध्यान रखना पड़ता है। इसीलिए यह ऊनका उपकरण पसंद किया गया है। मुँहपत्ती सूती चल सकती है किन्तु वह सादी ही होनी चाहिए।
ये उपकरण-साधन कितने बड़े होने चाहिए? इसके लिए शास्त्रोंमे सभीके 'माप' बतलाये है, जिसे गुरु द्वारा जान लो ५५. जैनसाधु- दीर्घशंका अर्थात् मलोत्सर्जन करनेके लिये विहारभूमिमे गये हुए साधु , वस्त्र पहने हुए, पानीके काष्ठपात्रके साथ कैसे दीखते है, यह दिखानेके
लिए यह आकृति दी गई है। ५६. काउसग्ग- प्यानकी साधना के एक अंग रूप काउसग्ग (कायोत्सर्ग) नामकी एक क्रिया-साधना है। मुख्य रूपसे यह क्रिया खडे-बडे ही की जाती है. जिसे (कायोत्सर्ग मुद्रा) चित्रमें दिखाया गया है। यह क्रिया जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, सभी करते है। इस क्रिया मुख्य रूपसे बहुधा पंचपरमेष्ठी नमस्कार रूप
नवकार सूत्र-(मन्च) अथवा चौबीस तीर्थकर प्रभुकी स्तुति-वन्दन-रूप लोगस्स सूत्र' को मनमें (अर्थ चिंतनपूर्वक) गिना जाता है। इस कियामें शरीरकी ममताको छोड़कर तथा अन्तर्मुख बनकर अचंचल रूपसे स्थिर रहना पड़ता है। दृष्टि नासिकाके अग्रभाग पर रखी जाती है। हाथ, पैर तथा समग्र शरीरकी स्थिति प्रतीक के अनुसार ही रखी जाती है। केवल हाथमें रखी हुई वस्तुओंमें 'मुँहपत्ती' को दाहिने हाथमे ही रखना चाहिये। जब कि साथ-साध्वीजीको 'ओघा' और श्रावक-श्राविकाओको 'चरवला' बायें हाथमें और उसे अपबीचसे पकहकर रखना है। दोनों हाथ जाँघके निकट रहने चाहिये। यह मुद्रा किसी भी प्रकारका ध्यान करनेके लिये है। शास्त्रमें इसे चौदहवे गुणस्थानक के नमूनेके रूपमे बतलाया है।
-यह चित्र काउसग्ग की क्रिया के प्रसंगका है। चित्रमें बाई ओर साधु तथा दाहिनी ओर श्रावक है। ५७. माला- परमात्मा के नाम का अथवा किसी प्रार्थनासूत्र अथवा किसी भी पार्मिक पदका जप करने का एक साधन।
यहाँ १०८ संख्याकी और अन्य (उसके चौथे भाग के रूपमे) २७ संख्यक मणियों-मनकोवाली इस प्रकार दो तरह की मालाएँ बताई गई है। (ये १०८ तथा २७ की संख्या का प्रचलन किन हेतुओंसे निश्चित हुआ है, यह चर्चा विस्तृत होने के कारण यहाँ नहीं दी गई है।) कुछ व्यक्ति अधिक समय लेनेवाले बड़े जाप्य-मन्त्रोंको २७ बार ही जप लेते है। उतनी गणना से ही वे संतोष मान लेते है। इसलिए वे २७ मनकोवाली माला का उपयोग करते है। अधिकांश रूपमें अजैन संप्रदायोंने भी संख्याकी दृष्टिसे १०८ की माला स्वीकृत की है।
प्रत्येक धर्ममें जप हेतु गणनाकी पद्धति-आम्नाय पृथक-पृथक है। मन्त्रशास्त्र के शान्तिक, पौष्टिक, वशीकरण आदि षट्कर्मोके लिये पाँच प्रकारकी विविध रंगवाली मालाएँ निश्चित की हुई है। इनमें कौनसी माला, किस हाथ की किस अंगुली पर, किस प्रकार रखकर, किस समय गिननी चाहिए? आदि अनेक बातोका विचार मन्त्र-तन्त्र शास्त्र विशारदोंने विविध रूपसे किया है। उसे ग्रन्थान्तर अथवा गुरुगमसे ज्ञात करें।
१०८ मनकोंकी माला पर एक अथवा तीन मणियाँ होती है, जिन्हें मेल कहते है। इसका उल्लंघन करके दूसरी बार माला नहीं गिनी जाती। अपितु उसे घुमाकर गणना की जाती है। अर्थात् जो मनका अन्तिम गिना हो, वहींसे पुनः आरंभ किया जाता है। मालाकी पवित्रता रखनी चाहिए। पहने हुए वस्त्र के स्पर्शसे अशुद्ध न हो जाए इसका ध्यान रखना चाहिए। सामान्य रूपसे गणना करनेके लिए शुद्ध सूत की बनी हुई मालाको श्रेष्ठ माना है।
रुद्राक्ष आदि अन्य प्रकार की मालाओका भी उपयोग किया जाता है। ५८.गंबज - शिखरबन्धी मन्दिर गुंबजके बिना नहीं होते। अतः शिखर के सामने शिल्पकार गुंबजकी रचना करते है। जैन मंदिरोंमें ये गुंबज मुख्यतः चार प्रकार (घुम्मट) के बनाते है। इनमेसे यहाँ (५८ से ६० कमांक तक) तीन प्रकार बताये है। यह ५८ वाँ (फाँसवाला) प्रकार बहुत कम प्रचलित है। २० वर्ष पूर्व
शिल्पी इस प्रकार को नहीं बनाते थे। अभी कहीं-कहीं बनाये जाते है। यह गुंबज राजदरबार का नहीं अपितु देवदरबारका है। इसका रूप प्रस्तुत
करनेके लिए देवमन्दिर के शिखर का थोड़ा सा ख्याल यहाँ दिया गया है। ५९. गुंबज (घुम्मट)- यह दूसरा प्रकार है। यह विशेष रूपसे राजस्थान तथा बंगाल की ओर अधिक प्रचलित है। ६०. गुंबज(घुम्मट)-यह तीसरा प्रकार है, तथा यह मुख्य रूपसे गुजरात की ओर प्रचलित है। ६१. स्वस्तिक - यह भारतीय संस्कृति का सर्व-संप्रदाय मान्य एक अत्यन्त प्रसिद्ध मंगल प्रतीक है। स्वस्तिक के आकार को मांगलिक आकार माना है। ऐसे
आकारकी वस्तु अथवा आलेखन का मंदिर-घरमे रहना मंगलमय है, अर्थात् इसके रहनेसे शुभ होता है। इसीलिये आर्योने इसका प्राचीनकालसे समादर किया है। पश्चिममे रहनेवाले आर्योने भी इसका आदर किया है। जैनोंके अष्टमंगलमें पहला स्थान ही 'स्वस्तिक' का है। प्रचलित व्यवहारमे जैन लोग 'स्वस्तिक' के लिये 'साथिया' ऐसे शब्द का प्रयोग करते है। जैनोंके कर्मकांड में और अनेक प्रसंगोंके प्रारममें इसके आलेखन की तथा आजकल तो पूजन करनेकी भी प्रथा है। इसका संस्कृतमें पद्य बद्ध विधान भी बना हुआ है। रायपसेणी, ज्ञाता आदि जैनागमोमे बताये अनुसार देवलोक में स्थित अष्टमंगलकी आकृतिमें इसको स्थान मिला है। जैनों में तो रथयात्राके अवसर पर रथके आगे, गुरुदेवोंके स्वागत के समय तथा
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