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- जैन साधु घर-संसार का त्याग करके हिंसा, असत्यादि पापोंको छोड़कर, कंचन-कामिनी के त्यागी बनकर, पादविहारी बनकर, स्व-पर
आत्मसाधनामें तत्पर होते है। ४०.जैन साध्वी यह प्रतीक शास्त्र में प्राचीनकाल में आर्या शब्दसे और आप साथी शब्दसे संबोधित होता है। लोक व्यवहार में आज तो गर्दी के अपश 'गुरणी' आयो - तथा उसके अपवंशसे बना हुआ 'गयणी' शब्द और आयकि स्थान पर अपघंश 'आरजा' शब्द प्रयुक्त होता है।
जैन साधु-साध्वी के लिए वेष परिधान की पद्धति और वस्त्र कैसा होना चाहिए उसकी जो मर्यादा निश्चित की गई है वह सूचक तथा हेतुपूर्वक है। इसमें शरीर संयम की रक्षा एवं लोक सभ्यताका मुख्य रूपसे ध्यान रखा गया है।
- चित्रमें वस्त्रपरिधान स्पष्ट है। साधुके समान साध्वी के पास भी ओघा, दण्ड, बाये कन्ये पर कमली है। विशेषमे चित्र पुरा चित्रित होनेके कारण हाथमें 'तरपणी' शब्दसे प्रसिद्ध भोजन ग्रहण करनेका काष्ठ का पात्र बताया गया है। साधुके समान साध्वियोंके भी उपकरण के रुपमें चार
वस्त्र होते है। उत्तरीय वस्त्र दो के स्थान पर तीन होते है। ४१. श्रावक-जैन - रागद्वेष के विजेता, (जीतनेवाले) जिन-तीर्थकर का अनुयायी-भक्त, अथवा जिनके आदेशोका पालक, तथा रागद्वेष रूप अन्तरंग शत्रुओंको जीतने
के लिए जो प्रयत्न करता है उसका नाम 'जैन' है। ___श्रावक शब्दकी दृष्टिसे सोचते है तो शुद्ध देव, गुरु, धर्म पर अटल श्रद्धावान्, तीर्यकर-प्रणीत धर्मोपदेश का श्रवण करनेवाला, देशकाल की मर्यादा का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करनेवाला, न्याय सम्पन्न रहकर प्रामाणिक रूपसे आजीविकाका व्यवहार करनेवाला, इससे भी आगे बढ़कर कहे तो स्थूल- (अनावश्यक) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आदि पाँच अणुव्रतोका न्यूनाधिक अंशमे पालनकर्ता ऐसे
गुणोंवाले व्यक्ति को श्रावक कहते है। ४२.श्राविका-जैन- व्याख्या ४१ वे प्रतीक के अनुसार समझे।
ज्ञान दो प्रकारका है। (१) मिथ्या और (२) सम्यम्।
यहाँ 'ज्ञान' शब्दसे सम्यग् सच्चा ज्ञान ही अभिप्रेत है। जिससे सच्ची समझ आये, सच्या प्रकाश प्राप्त हो, अज्ञानका अन्धकार नष्ट हो जाय, संसारसे विरक्त बना कर संसारका भ्रमण घटा दे और आत्मकल्याणकी साधना कराये ऐसे ज्ञान को ही मुख्यतया आदरणीय, पूजनीय, वन्दनीय माना है। साथ ही ज्ञान यह आत्माका अपना अबिनाभावी-सहभावी गुण है। माया के बन्धनोंसे वह गुण असम्यग् अज्ञान स्वरूप बनता है। सामान्यतया सांसारिक ज्ञानोंका मिथ्याज्ञानमें समावेश होता है। यह जीवको अधिकाधिक भौतिकवादी बनाकर उन्मार्ग पर ले जाता है। संसारकी वृद्धि करता है। तथा आत्माके अधःपतनको आमन्त्रित करता है। जब कि सम्यग् विवेकपूर्वकका थोड़ासा भी ज्ञान, जीवको आत्मवादी बनाकर, हेयोपादेयका यथार्थ भान करवाकर और वास्तविक सुख-शान्ति का सन्मार्ग बतलाकर जीवनको सच्चे मार्ग पर ले जाता है। आध्यात्मिक उत्कर्ष की साधना करवाकर परम्परा-पूर्वक मोक्ष प्राप्ति कराता है। इस ज्ञानका सम्मान करना आवश्यक है। तथा प्रत्येक आत्माको ज्ञानलक्षी बनना आवश्यक है। ऐसा लक्ष्य बना रहे, ऐसे कतिपय कारणोंसे श्वेताम्बरी प्रतिवर्ष 'ज्ञानपंचमी' अथवा श्रुतपंचमी के नामसे प्रसिद्ध कार्तिक शुक्ला पंचमी का पर्व मनाकर उसका संपूर्ण भारत में उत्सव मनाते है और उस दिन सच्चे ज्ञानके धार्मिक ग्रंथोकी स्थापना होती है, उनकी पूजा-प्रार्थना आदि होती है। दिगम्बर जैन 'श्रुतपंचमी' नामसे ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को यह पर्व मनाते हैं।
यहाँ प्रतीकमें ज्ञान की आशातना न हो, इसके लिए पुस्तकासन के रूप में प्रयुक्त होनेबाला सापडा (घोडी) और पुस्तक आदि ज्ञानके साधन दिखाये गये है। ऐसे साधनोंका उपयोग सभी करे और उनकी रक्षा एवं प्रचारमें सहयोग दे। सच्ची ज्ञान साधना तो प्रतिदिन अभिनव ज्ञान प्राप्त करने में अथवा उसके स्वाध्याय-अनुप्रेक्षामें है। इसलिए सभीको ज्ञानाभ्यासी बनना चाहिए। जैन वर्ग ज्ञान के मत्यादि पाँच भेदों को मानता है।
तथा इनमें श्रुतज्ञानकी स्व-पर प्रकाशक के रूपमें स्तुति करते है। शेष चार ज्ञानोंको स्वप्रकाशक कहकर मूकके रूपमें व्यक्त करते है। ४४. दर्शन - दर्शनके अनेक अर्थोंमें से यहाँ 'श्रद्धा' अर्थ अभिप्रेत है। यह श्रद्धा भी दो प्रकारकी है। एक मिथ्या और दूसरी सम्यग । यहाँ सच्ची श्रद्धा को ग्रहण
करना चाहिए। यह श्रद्धा आध्यात्मिक उत्कर्ष के भवनकी मूलभूत नींव है। अतः सत् श्रद्धावाले को ही सत् ज्ञान हो सकता है। ___ इस श्रद्धाको उत्पन्न करनेवाले अनेक साधनोंमें से जिनमूर्ति-जिनमन्दिर भी एक अति प्रबल साधन है। अतः दर्शन के प्रतीक के रूपमें
'जिनमन्दिर' रूप साधन की एक छोटी सी सामान्य आकृति यहाँ दिखाई है। ४५.चारित्र - चारित्र भी सम्यग् और असम्यग् दोनों प्रकार का हो सकता है। यहाँ सम्यग्-सच्चे चारित्रकी बात है। इस चारित्रकी व्याख्या यह है कि जिससे
समस्त प्रकारके पापाश्रव रुख हो और संवर भाववाला संयमी आचरण हो वह। इसके लिए इसके साधनोंके रूपमें मुख्य रूपसे - (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य, (४) ब्रह्मचर्य तथा (५) अपरिग्रह, इन पाँच महाव्रतोंको बताया गया है। इनका निरतिचार भावसे, उपयोगपूर्वक सर्वथा जो पालन होता है उसीका नाम चारित्र है। इसका दूसरा नाम पापसे विरति होने के कारण 'विरति' (त्याग) है। इस विरति-त्याग अथवा चारित्र के अनेक प्रकार शास्त्रमें वर्णित है।
यहाँ दिये गये प्रतीकोंमें चारित्र- पालन के उपकरण रूप में अनिवार्य माने जानेवाले श्रमण-श्रमणीको ओघा (-जोहरण), दंडा (-दण्ड) और
'तरपणी' शब्द से प्रसिद्ध काष्ठके भोजन-पात्र दिखाये गये हैं। ४६.अरिहंत
जैन धर्मने पाँच परमेष्ठियोंको स्वीकृत किया है। उनमें प्रथम परमेष्ठी 'अरिहंत' है। इनके अरिहत, अरहत अथवा अरुहत आदि नामान्तर है। जैनोंमें चौबीस तीर्थकर- ईश्वर होते है। उन्हें 'अरिहंत' कहते हैं। यद्यपि तीर्थकर अनेक गुणवाचक नामभेदोंसे प्रसिद्ध हैं। किन्तु उनमें सबसे प्रसिद्ध नाम 'अरिहत' है। तथा प्रतिदिन लाखों जैन 'नवकारमन्त्र' की प्रार्थना, जप, ध्यान आदि करते है, उसमें पहला नमस्कार्य पद नमो
अरिहताण' (अरिहतों को नमस्कार) है। पूर्व जन्मों में विश्वके प्राणीमात्र के प्रति व्यक्त की गई प्रबल भावदया के कारण तथा उसीसे लक्षित पुरुषार्थके प्रतापसे वे अन्तिम ईश्वर अरिहंत पद प्राप्ति के भवमें उच्च कुलमें जन्म लेते है। तथा योग्य समय पर दीक्षा-चारित्र ग्रहण करते है। तप
और संयमके द्वारा अप्रमतभावसे उग्र साधना करके कर्मक्षय करते हुए आवरणोंका क्षय करके राग-द्वेषादि दोषोसे रहित बनने के साथ वे केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। उस समय वे वीतराग होते है। सर्वगुणसम्पन्न बनने पर वे सबके लिए वन्दनीय-पूजनीय बनते है। (प्रायः) सदैव समवसरणादि के प्रवचन पीठ पर बैठकर हजारों जीवोको त्याग-वैराग्यमय अमृत वाणी के द्वारा आत्मकल्याण का उपदेश देकर आध्यात्मिक साधना का सम्मार्ग दिखलाकर उनका कल्याण करते हैं। ये अरिहंत अपना आयुष्य पूर्ण होने पर शेष कर्म का क्षय करके निर्वाण प्राप्त कर, सिद्धि-मुक्ति सुख के भोक्ता बनते है।
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