Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 243
________________ १. सिंह २. कलश ३. हाथी - ५. हंस - ४. सूत्र वाचना ६. शहनाई - - ७. औंड्र (गोल आकारणे) ४८ चित्र-परिचय के लेखके बिच-बिच १.१ इंच मे समचौरस छपे हुए १४४ तथा अन्य प्रतीकोंकर परिचय Jain Education International यह सिंहाकृति उत्तरप्रदेशके मथुराके जैन स्तूप की सिंहाकृति का अनुसरण करती हुई अनुकरणात्मक आकृति है। यह शिल्पी ढंग की आकृति है। सिंह श्रमण भगवान महावीर को परिचित करानेवाला एक लाञ्छन- चिह्न होनेसे प्रतीकोंका आरम्भ इसीसे किया है। यह वन का राजा और शौर्य पराक्रम का प्रतीक माना जाता है। जैनधर्म की परिकरवाली पत्थर और धातु की मूर्तियोंके नीचे इसे अवश्य स्थान मिला है। लौकिक अष्टमंगलमें सिंह भी मंगल माना गया है। चौदह स्वप्नों में भी इसका प्रमुख स्थान है। प्रत्येक तीर्थंकर की माता पुत्र तीर्थंकर के अवतारसूचक चौदह महास्वप्नोंको देखती है। उनमें सिंहका स्वप्न भी होता ही है। यदि स्वप्नमें सिंह दिखाई दे तो देखनेवालेको श्रेष्ठ लाभ होता है ऐसा भारतीय स्वप्नशास्त्रोंका कथन है। 'जीवन में मंगल करनेवाली' अष्टमंगल नामसे विख्यात जैनधर्म में प्रसिद्ध अष्ट आकृतियोंमेंसे छठी संख्याकी एक मंगल आकृति है। जैन अथवा अजैन लोग धार्मिक अथवा व्यवहारिक कार्योंके प्रारंभ में, मकान, आदिके वास्तुप्रसंगोंमें तथा कतिपय धार्मिक अनुष्ठानोंके अंतमें शान्तिस्तोत्र ( बड़ी शान्ति) के पाठ द्वारा जल भरकर कलश की मंगल स्थापना मुख्य रूपसे करते हैं। भारतीय संस्कृतिका तथा शान्तिक-पौष्टिक कर्मों के निमित्त का यह एक महत्त्वपूर्ण अति श्रद्धेय प्रतीक है। पत्थर अथवा काष्ठके मंदिरोंके तथा गृहस्थोंके गृहोंके मुख्यद्वारोकी चौखटों पर १. स्वस्तिक ( - साथिया), २. श्रीवत्स, ३ नन्द्यावर्त, ४. वर्धमानक (- शरावसंपुट), ५. कलश (कुम्भ), ६. भद्रासन, ७ मत्स्य युगल और ८. दर्पण। ये आठ प्रकारके मंगलरूप माने गए 'अष्टमंगल' शब्दसे प्रसिद्ध आठ आकार खुदवानेकी खास प्रथा थी। हमारे यहाँ प्रायः बहुतसे स्थानों पर आज भी ये देखनेमें आते है। यह चित्र मध्ययुगीन बहुमान्य सचित्र जैन कल्पसूत्र ग्रन्थ की आन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्र पद्धति की अनुकरणात्मक कृतिके रूपमें दिया गया है। मथुराके जैन स्तूपमें उत्कीर्ण गतिमान हाथी की आकृति की यह एक अनुकृति है। हाथी भारत देशका सुविख्यात, आकर्षक, अत्यन्त सुबुद्ध, बलवान तथा शकुनवाला प्राणी है। विद्यमान प्राणियोंमें यह सबसे बड़ा और विशालकाय है, यह मांसाहारी नहीं है अपितु वनस्पति आहारी है। हाथी श्याम और श्वेत ऐसे दो रंगोंके होते हैं। सपरिकर (परघरवाली) तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंमें नीचेवाली गादीके भागमें हाथीको प्रमुख रूपसे स्थान मिला है। भारत में महत्त्व की शोभायात्राओंमें इसका सवारीके रूपमें खास उपयोग किया जाता है। प्राचीनकालमें युद्ध लड़नेके लिए 'गजसेना' रखी जाती थी। इसे लोहेके बख्तर भी पहनाए जाते थे, जिनके नमूने 'अजायब घर म्यूझियम में दिखाई देते हैं। दक्षिण तथा पूर्व भारतके मैसूर, आसाम और अफ्रीका तो हाथीकी उत्पत्तिके प्रमुख स्थान है। भारतसे बाहर अफ्रीका में भी हाथियोंकी संख्या विशाल है किन्तु अफ्रीकाका जंगली हाथी बहुत ऊँचा-चौड़ा, बड़े कानवाला, कुरूप भयावना तथा बड़ी कठिनाईसे पाला जा सकनेवाला होता है। चौदह महास्वप्नोंमें इसका आद्य स्थान है। 'बाजोठ' काष्ठासन पर बैठे हुए जैन गुरु-मुनि अपने आसनस्थ शिष्य मुनिको धार्मिक सूत्र की वाचना (पाठ) देते है। शिष्यके हाथमें धार्मिक शास्त्र लिखा हुआ ताड़पत्रका लम्बा पत्ता है। दोनोंका मुनिवेश आजकी पद्धति से भिन्न पद्धतिवाला है। किन्तु प्राचीनकालकी ताड़पत्र अथवा कागजकी कल्पसूत्रादिकी प्रतियोंमें ( न जाने किस कारण ) इस प्रकारका ही पहनावा उत्तरोत्तर समयमें देखनेको मिलता है। ६०० वर्ष पहले गुजरातमें ताडपत्रका व्यवहार पर्याप्त मात्रामें होता था। दोनों आकृतियोंके बीच जैन साधु-साध्वी के उपकरणमें अनिवार्य आलम्बन के रूपमें मान्य, सदाके सहयोगी, पंचपरमेष्ठीकी स्थापनाके रूपमें स्थापित अक्षोंसे युक्त 'स्थापनाचार्य' दिखाई देते हैं। एक खड़ी घोड़ी है जिसे व्यवहार की जैन भाषामें 'ठवणी' कहते हैं। आजकल तो यह शब्द स्थापनाचार्यजीका पर्यायवाची बन गया है। चित्रमें गुरुश्रीके पीछे सेवा करता हुआ एक शिष्य खड़ा दीखता है। यह चित्र तेरहवीं शतीकी सचित्र कल्पसूत्रकी प्रति की पद्धतिके अनुसार बनाया गया है। मथुराके जैन स्तूपमें उत्कीर्ण एक सुशोभन । हंस भारत का प्रिय पक्षी-प्राणी है। प्रमुख रूप से काव्यशास्त्रियोंको विशेष प्रिय है। शिल्प स्थापत्यों में भी यह विशेषतः दिखाई देता है। जैन मंदिरोंमें शिखरबन्ध दहेरासरके शिखरके पूर्ण नीचे के भागमें पत्थरमें ही हंसथर-हंसस्तर अर्थात् हंसोंकी पूरी श्रेणी दिखाई जाती है। इतना ही नहीं, अपितु जैनमूर्तिके परिकर (परघर ) में मूर्तिके ऊपरी वलयाकार भागके छोरमें हंसकी पंक्ति मुख्य रूपसे उत्कीर्ण की जाती है। हंस अपनी चालसे सुंदर लगनेके कारण कवियोंने स्त्रीकी सुंदर गतिको हंसकी गतिके समान माना है। और वह अपनी चोंच की विशेषता के कारण दूधमें मिले हुए पानी को पृथक् करनेका गुण भी रखता है। भारत देशमें प्रसिद्ध 'सुषिर' वर्गका एक मंगल वाद्य। वर्षों पूर्व देव दरबारमें और राजदरबार में दिनमें तीनों समय यह बजाई जाती थी। (विशेष परिचय के लिए देखिये प्रतीक संख्या २० ) - एक सुप्रसिद्ध अत्यन्त प्रभावशाली तथा जैनमन्त्रों में मूलभूत अतिमान्य सबीज मन्त्रपद । यहाँ दिया हुआ अर्ह पद जैन पद्धतिके मन्त्र बीजोंवाला है। इसमें सार्वभौम माने जानेवाले अनाहत रूप गोल वलयसहित ड्रींकारबीजके गर्भ सुप्रसिद्ध ओंकार मन्त्रबीज है। यहाँ 'अहं' के 'अ' के स्थान पर 3' ऐसा सूचक अवग्रह चिह्न दिया गया है। यह चिन्ह 'कुण्डलिनी' आकृतिका सूचक है। अथवा व्याकरणके नियमानुसार ओँ के बाद अहं का 'अ' आनेसे उसकी सन्धि के कारण भी अवग्रह चिह्न हो सकता है। १. अष्टमंगल के परिचय के लिए पट्टी तीन का परिचय देखें। २. यह प्रथा २० वीं शती तक तो बराबर चलती रही, परंतु अब तो परदेशी पद्धतिकी-आर.सी.सी. का सीमेन्ट की चुनाई का काम होनेसे यह मंगलप्रथा प्रायः बन्द हो गई है। परंतु प्रत्येक घरमें अष्टमंगल नहीं बनाये जा सके तो आर.सी.सी. की 'कलाकृति' इम्बोस करके अथवा खुदवाकर या स्वतन्त्र रूपसे ऊपरसे लगाकर या चित्रित करवाकर इन्हें अवश्य रखना चाहिए। इससे घर में मंगल, सुख, शान्ति तथा शीतलता का अनुभव हो। ३. कल्पसूत्रमें चौदह स्वप्नोंमें हाथीके स्वप्नकी बात कही गई है वहाँ हाथी श्वेतवर्णका बतलाया है। सम्प्रति ऐसा हाथी थाइलेण्ड स्याम देशमें है। इन दिनों आसामके पास नागदेशमें भी सफेद हाथी मिला है। प्राचीनकालमें इस देशमें श्वेत हाथी पर्याप्त मात्रामे थे। For Personal & Private Use Only १६९ www.jainelibrary.org

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