Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 240
________________ किसी संस्थाने हामी नहीं भरी। देशकालज्ञ आचार्य तथा अग्रणी लोग अगर जाग्रत हो तो यह अत्यन्त कठिन, लेकिन असंभव कार्य नहीं है। असीम सुषुप्ति में अडे हुए संघ में शासन संघ के अनिवार्य ऐसी हितकारक राजकीय चेतना जगेगी क्या? इस पट्टी में छहों धौकी प्रार्थनाएँ भी दी गई हैं। जैन तथा बुद्ध धर्मकी प्रार्थनामें कुछ शब्दसाम्य है। अतः इतिहासकार जैन धर्म तथा बुद्ध धर्म इन दोनों को श्रमण संस्कृतिकी शाखा स्वरूप ही मानते हैं। मैं अपने परिचित प्राध्यापकों तथा पी.एच.डी. होने के इच्छुक विद्यार्थियोंको जैन धर्म तथा बुद्ध धर्म के उपदेशमें रहे विचारसाम्य, शब्दसाम्य, अर्थसाम्य, आचारसाम्य, मूर्तिसाम्य आदि आदि का अनुसंधान करने के लिए कहता रहा हूँ। ४८. गजरव और ज्ञानयात्रा जैनों की गजराज के साथ की यह रथयात्रा है। इसे गजराज यात्रा भी कहते है। और हाथी पर शास्त्र स्थापित होनेसे इसे ज्ञानयात्रा भी कह सकते है। रथम तीर्थकर भगवान की प्रतिमाजी स्थापित की गई है। यो देखें तो घोडेका उपयोग नहीं होने पर भी हाथीका वरघोडा (चलयात्रा-शोभायात्रा) रथका वरघोडा ऐसा कहा जाता है। यह पट्टी जुलूस-वरघोडेमें एकके बाद एक कौन कौनसी वस्तु होनी चाहिए उसका सर्वसामान्य परिचय देनेवाली है। ४९ से ५४. २४ तीर्थंकरोंके यक्ष-यक्षिणियों के आयुध तथा वाहन आदि स्वरूपोंके परिचयकी पट्टी सोमपुरा आदि मिस्त्री, विद्वान साधु-साध्वीजियाँ, श्रावक, ट्रस्टी आदि वर्गको नाम रहित देव-देवीकी मूर्ति होने पर वह मूर्ति किसकी है, इसका निर्णय करनेमें द्विधा उत्पन्न होती है। इस द्विघाके निराकरण के लिए शास्त्रोंमें मूर्तिकी पहचानके चौकस साधन निर्धारित किये हैं जिनमें मुख, हाथ, वाहन और आयुध महत्वपूर्ण हैं। चित्र संपुट की दूसरी आवृत्ति में २४ यक्ष-यक्षिणियोंके संपूर्ण रूपवाले चित्र, पट्टी द्वारा प्रकाशित किये थे, परंतु चित्र छोटे तथा कुछ बराबर स्पष्ट न होनेसे जल्दी समझमे आवे इसलिए हमने यहाँ छ: पट्टियाँ पुनः तैयार करवाके छापी है। सवा इंच की छोटी सी पट्टीमें भी हाथ के आयुध आदि स्पष्ट समझमें आवे इसलिए देव-देवियोंकी आकृति न चितराकर सिर्फ चार हाथ और वाहन चितरानेका निर्णय किया। किस तीर्थकरके देव-देवी हैं इस हेतु बिचमें वर्तुल बनाकर तीर्थकरका क्रमांक बताया हैं। सबसे ऊपर तीर्थकर के देव-देवी के नाम दिये हैं। नीचे वाहन बताये हैं तथा चार हाथों में हर हाथके आयुध दिखाये हैं। यक्ष-यक्षिणियोंकी २४ आकृतियोंमें सिर्फ पहले, सोलहवे, तेइसवे इन तीन यक्षोंके मुख क्रमशः हिरन, वराह, हाथीके है। वाहनोंमें सिर्फ बाइसवाँ मनुष्यका है। प्राणियों, पक्षियोंका सीधी तरह अनुबंधित न हों ऐसे विविध शेष वाहनोंका निर्माण कैसे हुआ यह उपलब्ध नहीं हुआ। कुछ यक्षोंके मुख एकसे अधिक है उनकी संख्या ११ है। उनके हाथोंकी संख्या ४ से अधिक है। जबकि यक्षिणियोंमें एक चक्रेश्वरीके सिवाय शेष २३ यक्षिणियोंके सिर्फ चार ही हाथ है और मुख सबके एक ही है। तात्पर्य यह हुआ कि पुरुष यक्षके मुख और हाथ दोनों अधिक है जबकि स्त्री यक्षिणियोंमें सबके एक ही मुख है। इससे ऐसी कल्पना की जा सके कि अधिक बोलनेका अधिकार पुरुषोंका है और कम बोलनेका अधिकार स्वियोका है। नावीन्य प्रस्तुत करनेवाली मेरी यह कल्पना बुद्धिमान प्रेक्षकों को अवश्य पसंद होगी। हर एक पट्टी में पट्टीके नाम के साथ सब कुछ स्पष्ट लिखा होनेसे विशेष परिचय देनेकी जरूरत नहीं है। ५५. एकेन्निय जीवोंके विविध प्रकारोंका दिग्दर्शन अखिल बहमांड में दृश्यादृश्य, अनंतानंत जीव विद्यमान है। अनंता जीवों का वर्णन या व्याख्या देना असंभवित है अतः शास्त्रकारोंने वर्गीकरण करके तमाम जीवों के ५६३ प्रकार किये हैं। इन ५६३ प्रकारों का पांच विभागों में विभाजन किया है। इन पाँच विभागों में एक इन्दिय वालेजीवों से लेकर पाँच इन्दियवाले जीव होते हैं। इन्द्रियाँ पाँच है। पाँचों आभ्यन्तर इन्द्रियों की बाल्य आकृतियों के नाम क्रमशः १. स्पर्श २. रसना ३. प्राण ४. चक्षु तथा ५. कर्ण हैं। स्पर्श अर्थात् (body) चर्म, रसना अर्थात् जीभ, प्राण अर्थात् नासिका, चक्षु अर्थात् आँख और कर्ण अर्थात् कान है। १. ठंडा या गरम, कठोर या कोमल आदि आठ प्रकार के स्पर्शों का ख्याल स्पर्श इन्द्रिय या शरीर के स्पर्शसे होता है। २.खट्टा, खारा, तीखा, कडुआ, मीठा, तुवर आदि छः प्रकार के रसों का परिचय जीभ के अंतर्गत रसना इन्दिय द्वारा होता है। ३. सुगंध और दुर्गध नासिका का विषय है और इनका अनुभव नासिका में आई घाणेन्द्रिय द्वारा होता है। ४. लाल, हरा, पीला, श्याम, सफेद, नीला आदि रंगों का परिचय चक्षु इन्द्रिय द्वारा होता है और ५. शब्द श्रवण का अनुभव कर्ण इन्द्रिय द्वारा होता है। विश्वमें अनंता जीव एक इन्द्रियवाले (स्पश) है। असंख्य जीव दो इन्द्रियोंवाले (स्पर्श, रसना) होते है। तीन इन्द्रियोंवाले जीव (स्पर्श, रसना, घाण) और चार इन्द्रियोवाले जीव (स्पर्श, रसना, घाण और चक्षु) क्रमशः असंख्याता है तथा पाँच इन्द्रियोंवाले जीव (स्पर्श, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र) असंख्याता हैं। जैन शास्त्रकारोंने वर्ग करके निश्चित किये, जीवों के ५६३ भेदोंमें वर्तित एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव किस प्रकार के होते हैं इसे दिखाने को वहाँ दो चित्रपट्टियाँ प्रस्तुत की गई है। प्रथम पट्टी एकेन्द्रिय जीवोंकी है तथा दूसरी अन्य तमाम जीवोंकी है। ७३. 'वरघोडा' शब्द बास्तविक रूपसे तो घोड़े पर बैठकर जनसमुदायके साथ लग्न करनेके लिए जाते हुए वर (दुलहा) पक्षके समूह के सम्बन्धमें प्रयुक्त होता है। किन्तु आज तो यह शब्द गुजरातमै सभी प्रसंगोंके लिए चालू सिक्के के समान प्रयुक्त होता है। किसी भी प्रकारके धार्मिक अथवा व्यावहारिक प्रसंग के लिए सज्जन, महाजन समुदायके साथ शहरमें बजते बैंड सहित फिरते हुए जनसमूहको वरघोडा' शब्दसे ही सबोधित किया जाता है। यद्यपि गुजरातीमे 'सरपस' शब्द है, किन्तु आजकल यह शब्द जिस अर्थमे रूढ हो गया है, उसे देखते हुए सभी प्रसंगोंमे वह उचित नहीं लगता। और दूसरा कोई यथार्थ शब्द गुजराती भाषामे मिला नहीं। हिन्दी भाषामें वरघोड़ा'को वरयात्रा कहते है। यह यात्रा' शब्द 'वरपोडा' के अर्थमें गुजराती में प्रचलित हुआ है। इसलिए मैंने भी यहाँ इसीका उपयोग किया है। Ja9 .cation International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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