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आदि पट्टीमें वर्णित है।
नौ रत्नों की अंगूठी बनानी हो या पूजाकी पाटली बनानी हो तो उन ग्रहोंको किस दिशामें किस स्थान पर रखना इसकी दो आकृतियाँ सम्बन्धित ग्रहों के नामों के साथ पट्टी के केन्द्र में दिखाई गई हैं। नौ ग्रहोंकी जानकारी पूर्ण होने पर लिखनेकी जगह शेष बची होने से अन्य प्रसिद्ध थोडे रत्नोंके नाम बताये गये है। नौ ग्रहोंके कुछ पत्थर धरती में से कुछ रत्न समुद्री स्थानमेसे तथा कुछ खानोंमेंसे मिल पाते हैं। रत्नों की भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि जातियाँ मानी जाती है। उत्पत्तिके समय ये रत्न सजीव होते हैं। एक इन्द्रिय वाले होते हैं अतः मात्र एक शरीर ही होता है, नाक, आँख, कान आदि नहीं होते हैं। बाहर निकलने के बाद उत्पत्ति स्थानका सम्बन्ध तूट जानेसे तथा बाहर के हवा और प्रकाश मिलनेसे वे नीर्जीव हो जाते हैं।
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४५. सेवा, उपासना, भक्ति, दान आदिके लिए जैनधर्ममें बताये हुए वंदनीय सात श्रेष्ठ क्षेत्र
विश्वकी धरती पर अच्छी और बुरी दो प्रकारकी प्रवृत्तियाँ चलती है। सरल भाषामें एक शुभ तथा दूसरी अशुभ कहलाती है। जैनधर्ममें शुभ प्रवृत्तिको पुण्य तथा अशुभ प्रवृत्तिको पाप कहते हैं।
जैन धर्ममें पुण्यका अर्थ होता है शुभ कर्म इन कर्मोंका उदय होने पर जीवको विविध प्रकारसे सुख, शांति, रिद्धि सिद्धि, समृद्धि, सद्गति आदि मिलते हैं। उन पुण्यकमों को देनेवाले (शुभकर्म) सात क्षेत्र बताये है। ये पुण्यक्षेत्र कहे जाते हैं। पट्टीमें ये सातों क्षेत्र बताये गये हैं इनके नाम क्रमशः १. जिनमूर्ति २. जिन मंदिर ३. ज्ञान ४ जैन साधु ५ जैन साध्वी ६. श्रावक और ७ श्राविका हैं।
इन सातों क्षेत्रों में जैनोंकी प्रबल श्रद्धा और विश्वास हैं। सर्व प्रथम क्षेत्र जिनमूर्ति और दूसरा जिनमंदिर हैं। भगवान की मूर्ति बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करनेके लिए जिनमंदिर के निर्माणमें जैनोंका प्रबल श्रद्धा भाव होता है। इसके लिए सर्वाधिक धन राशि खर्च करनेकी जैनोंकी भावना तीव्र होती है। चालीस साल पहले एक बुद्धिमान व्यक्तिने मुझसे प्रश्न पूछा था कि महाराजश्री ! लोग शिक्षण क्षेत्र, जैन भाइयोंकी सहायता के क्षेत्र तथा ज्ञानके क्षेत्र के लिए बहुत कम धन खर्चते हैं। जबकि भगवान की मूर्ति या जिन मंदिर बनवाने के लिए हजारों-लाखों रूपयोंका दान शीघ्र कर देते हैं इसका कारण क्या होगा? पहली बार ही यह प्रश्न उपस्थित हुआ। उत्तर देना आसान न था। विचारकी गहराईमें मनका प्रवेश होने पर तत्क्षण उत्तर मिल गया, उसे प्रस्फुट करने से मुझे आनंद हुआ, सुननेवाले तो मुग्ध ही हो गये। उत्तर यह था कि जैनधर्म में शुभकर्म की संख्येय प्रकृतियाँ (प्रकार) बताई हैं। उत्तरोत्तर उत्कृष्ट स्थान रखनेवाली पुण्यप्रकृतियाँ भी बताई हैं। इनमें सर्वश्रेष्ठ प्रकृति तीर्थंकर नामकर्मकी कही गई है। इस उत्कृष्ट कोटिकी पुण्यप्रकृतिकी तरफ लोगोंका आकर्षण सहज, सर्वदा रहे यह स्वाभाविक है। यह उत्तर सुनकर उन्हें संतोष हुआ।
तीसरा क्षेत्र ज्ञानका है। ज्ञान प्रकाश है और प्रकाश का सहारा लेकर मानवजाति कल्याण कर सकती है अत: सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना, कराना तथा करनेवाले को सब प्रकारका प्रोत्साहन देना शुभकर्म दायक है। ज्ञानके रक्षणके लिए स्मारकोंकी रचना करना, पुस्तकोंको प्रकाशित करना, दूसरोंके वास्ते विद्यादानके लिए संपत्तिका सदुपयोग करना, प्रवचनों द्वारा स्व-परका स्वाध्याय करना, पुस्तकोंका आदर करना जिससे ज्ञानके आवरण कम होते जाएँ तथा किसी न किसी जन्ममें केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति करके अंतमें आत्मा मोक्षसुखकी अधिकारिणी बन सके।
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वसति
तत्पश्चात् साधु-साध्वी के दो क्षेत्र हैं। साधु-साध्वी के दर्शन, वंदन, आदर, सत्कार-सम्मान करना। आहारदान, औषधदान, वस्त्रदान, दान आदिका दान करना साथ ही साधु-साध्वियोंकी सब प्रकारसे भक्ति करना यह सब मोहनीयादि कर्मके क्षय के लिए तथा पुण्यप्राप्ति के लिए आवश्यक है। अहिंसाके वेशधारी, पंचमहाव्रतधारी, परोपकार परायण साधु तथा साध्वियाँ हजारों लोगों को धार्मिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रमें जुटाकर मुक्ति मार्ग के पथिक बनाते हैं।
अंतिम दो क्षेत्र श्रावक और श्राविकाके हैं। अहिंसा, संयम, तप, त्याग प्रधान जैनधर्मका आचरण करते हुए श्रावक-श्राविका अच्छी तरह जीवन जी सकें, अच्छी तरह जैनधर्मका आराधन कर सकें इसलिए उन्हें सारी अनुकूलता प्रदान करना पुण्य प्राप्तिका कारण बनता है। इस तरह इन सातों क्षेत्रोंकी भक्ति उत्तरोत्तर आत्माके लिए मुक्तिमार्ग की सहायक बनती है।
४६. अभिनव प्रकारके अष्ट नमस्कार
जैन शास्त्रमें विशिष्ट प्रकार के नमस्कारों का एक प्रकार बताया है, जिसके आठ प्रकार हैं। यहाँ उन प्रकारों के पारिभाषिक नाम तथा उन नामों के चित्र संघ के चारों अंगों के चित्रों द्वारा प्रस्तुत किये हैं। इस प्रकार के नमस्कार से सम्बन्धित चित्र जैन साहित्य विकास मंडल द्वारा प्रसिद्ध किये गये नमस्कार स्वाध्याय में दिया गया है। बिचमे भगवान श्री महावीर की मुखाकृति दी गई है।
४७. भारतके मुख्य छः धर्म, धर्मोकी संख्या तथा उस धर्मोकी प्रार्थनाएँ
यह पट्टी अपने वर्तमान भारतके अलग अलग छह प्रकारके धर्मों का पालन करनेवाले मनुष्योंकी संख्याका ख्याल देती है। इस पट्टीमें छहों धर्मोके प्रतीक चिह्न भी बताये हैं उन्हें भी देखिये।
बदनसीबसे जैन धर्मका कोई चौकस प्रतीक नहीं है जिसे दिखानेसे यह प्रतीक जैनोंका ही है ऐसा सबको प्रतीत हो। जैन समाज के लिए यह एक दुःखद बाबत है। फिर भी हाल तो यहाँ स्वस्तिकका प्रतीक रक्खा है। यह पट्टी सिर्फ भारतके ही नहीं अपितु विश्वमें सर्वत्र प्रचलित धर्मोकी है तथा मुख्य छह धर्मोकी प्रार्थनाओंका इसमें समावेश किया गया है।
मुस्लिम धर्म का चांद का इसाई का क्रास ये दो विश्व प्रसिद्ध जाने-माने प्रतीक हैं। ऐसा अपना तो भारत प्रसिद्ध प्रतीक भी नहीं है। यहाँ छहों धर्मोके सिवा भारत में धर्मों के सैंकडो फिरके हैं और छोटी छोटी बस्तीमें बटे हुए हैं। इन विविध धर्मोंको पालनेवाली छोटी-बड़ी कौमों की संख्या निश्चित नहीं हो सकी है तो फिर उसके प्रतीकका निश्चय कौन करे? यह संभव भी नहीं है अतः सातवें चित्रमें खडे मनुष्यके नीचे प्रश्नार्थ चिह्न रखना पड़ा है। (प्रकीर्ण अर्थात् विविध प्रकारवाला) इन छह धर्मों को पालनेवाली जन संख्या कितनी है यह ई.स. १९७१ में भारत की जन-गणना के सरकारी अंकोंके अनुसार लिखा गया है। जैनों की संख्या २६ लाख की दी गई है। यह अंक विश्वसनीय नहीं हैं। जैनोंकी जन संख्या ५० लाख से भी बहुत अधिक है, परंतु जन-गणना के समय जैन लोग स्पष्ट रूपसे जैन लिखाने के बदले अनजान और अनपढ व्यक्ति हिन्दू जातिके खाने में 'हिन्दू' लिखवा देते हैं। फलतः जैनों की सच्ची जन-गणना नहीं हो पाती यह दुःखद बात है। लोक तंत्र में अत्यावश्यक ऐसे इस कार्यके लिए
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