Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 238
________________ ४२. जैनधर्मके मुख्य अंग स्वरुप बारह आगमशास्त्रों (द्वादशांगी) के नाम दिखानेवाली पट्टी जैन तीर्थंकरोंके केवलज्ञान-त्रिकालज्ञान होने पर वे स्व-बुद्धिसे शास्त्र रचना नहीं करते, लेकिन अपने प्रधान गणधर-शिष्यों द्वारा यह रचना करवाते हैं। ये शिष्य परिमित बुद्धिवाले होते हैं, परंतु तीर्थकर बुद्धिका विस्फोट करते है अर्थात् शास्त्र रचनाके लिए सामर्थ्य-शक्ति पैदा हो इस लिए तीर्थकर सिर्फ तीन ही मूलभूत-आधार स्वरूप वाक्योंका दान करके गणघरोंकी बुद्धिका विस्फोट करते है। ये तीन पद कमशः उपमेह था, विनमेह वा, पुष वा हैं। तीनों कालोंके समग्र ज्ञानके आधार स्वरूप-चाभी रूप ये तीन पद हैं। इनका अर्थ जगतमें पदार्थ उत्पन्न होता है, उनका विनाश होता है और पदार्थ कायम के लिए स्थिर रूप भी है। जगतके पदार्य तीनों स्थितिवाले होते हैं। गणधर दो हाथोंको जुटाकर और मस्तक नवाकर उन ज्ञानपदोंको ग्रहण करते है अर्थात् भेलते हैं। परमात्मा की वाणीके तीन पदोंसे गणधरोंमें असीम बुद्धि-शक्ति पैदा होती है, अतः वे (अंतर्मुहूत) दो घडियों-४८ मिनटों में बारहों अथाह शास्त्रोकी मौखिक रचना कर देते है। यह रचना मुख्य बारह शास्त्रोंकी होती है। इन बारह शास्त्रोंकी रचनाको जैनभाषा की सुप्रसिद्ध परिभाषामें 'बादशांगी' नामसे पहचाना जाता है। हरएक तीर्थंकरों के शासनमें इस द्वादशांगी की रचनाएँ होती हैं अतः अनादिसे अनंतकाल तक का यह शाश्वत नियम है। पट्टीके बिचमे भगवान महावीरका चित्र प्रस्तुत है। यह चित्र आवश्यक नियुक्ति की गाथाओंके आधार पर बनाया गया है। चित्र का भाव दिखाता है कि भगवान महावीर साधना करते करते ज्ञान स्वरूप वृक्ष पर चढ़ते गये। वृक्ष की चोटी पर पहुँचे तब उन्हें केवलज्ञान-त्रिकालज्ञान प्राप्त हुआ। तीर्थकर अतीव उदार, महान् परोपकारी और विश्व कल्याणकी भावनामें लगातार लीन होते हैं। विश्व कल्याण ज्ञानमार्गसे ही होता है यह निश्चित बाबत है। विश्वके समक्ष सारे ब्रह्मांडके तत्त्वोंका, उसकी व्यवस्थाका तथा समग्र विश्व की जीव चेतनाका कल्याण करनेवाला ज्ञान मानवजातिके समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये। इसलिए भगवानने केवलज्ञान स्वरूप वृक्ष पर चढ़कर सम्यक्ज्ञान की विविध शाखाओंके विविध पुष्पोंको चुन चुनकर उन ज्ञानपुष्पोको अपने आदि ग्यारह गणघरों-शिष्यों को समर्पित करने अपने हाथ में लिये। ग्यारहाँ गणधरोंने नीचे खड़े रहकर उन पुष्पोको अपने बुद्धि रूपी वस्त्रोंमें झेल लिया, तत्पश्चात् प्रचण्ड बुद्धिनिधान गणघरोंने उन पुष्पोंकी बारह मालाएँ बनवाई। ये बारह मालाएँ ही बारह शास्त्र हैं। इन बारह शास्त्रोंकी रचना आजसे २५१५ साल पहले बैसाख सुदि ११ के दिन भगवान महावीर और सकल संघकी उपस्थितिमे हो पाई थी। उस वक्त धर्मशास्त्रोको कंठस्थ करनेकी प्रथा थी। प्राचीनकालके जीवोंकी बुद्धि असीम थी अतः शास्त्रोंकी लिखवाने की प्रथा नहीं थी। सालों बाद अकालके कारण याद शक्ति क्षीण होने लगी। शास्त्र भूल जाने लगे अतः एक हजार साल पश्चात् वीर सं. ९८७ अथवा ९९३ के बिच भारत के विद्यमान महाज्ञानी जैन आचार्योंकी एक महापरिषद का आयोजन बलभीपुरमें किया गया था। कहा जाता है कि ५०० आचार्य एकत्र हुए थे और कंठस्थ उन शास्त्रोंको कागज पर लिखनेका सर्व प्रथम बार निश्चित हुआ और विस्मृतिसे जितना ज्ञान बच पाया उतना ज्ञान पुस्तकारूढ हुआ। तबसे हजारोंकी संख्या शास्त्र लिखे जाने लगे। भावी जीवोंमें उसकी उचित विरासत रह पाई। जैनोंकी आगम-शास्त्र भक्ति अनन्य है। तन-मन-धनसे महाज्ञानकी महान् विरासत जैन निभा रहे हैं। पट्टीमें इन बारह शास्त्रोंके नाम लिखे हुए हैं। ये बारहों शास्त्र प्रधान-मुख्य होनेसे उन्हें 'अंग' शब्दसे पहचाना जाता है। अतः द्वादश-अंग दोनों शब्दोको मिलाकर द्वादशांगी कहा जाता है। देहरीमें जिस तरह एक एक भगवान की स्थापना की जाती है, उसी तरह यहाँ कमान आकारकी पट्टी बनवाकर बारहों (अंगों) शास्त्रोको पोथी आकारमें लिखवाकर रखे हैं। यहाँ पट्टीमें प्राकृत भाषाके मूल नाम छपे गये है और उनके संस्कृत नाम भी नीचे लिखे गये हैं। उनके नाम क्रमशः १. आचार २. सूत्रकृत् ३. स्थान ४. समवाय ५. भगवती ६. जाताधर्म ७. उपासक ८. अंतगड ९. अनुत्तरो३०. प्रश्नव्याकरण ११.विपाकश्रुत और १२. दृष्टिवाद है। बाह्मणोंके मूलशास्त्रोंमें जिस प्रकार चार वेद है उसी तरह जैनोंके मूलशास्वोंमें ये बारह शास्त्र-अंग हैं। पश्चात् उनके उपांग-अंगोपांग आदि अनेक शास्त्रोका निर्माण हुआ है। एक बात खास ध्यान रखने जैसी है कि विद्या बाह्मणोंके वरणीय रही और धन बनिये-व्यापारी-वैश्य के वरणीय रहा। विद्या बाह्मणकुलमें आनुवंशिक हो ऐसा प्रतीत होता है। यहाँ अप्रत्यक्ष रूपमें इस कल्पना का समर्थन करनेवाली घटना यह है कि क्षत्रियवंशी भगवान महावीर के प्रथम ग्यारहो शिष्य बाह्मण ही ये और बारहों अंगोंकी शास्त्र रचना उन्होंने ही की। योगानुयोग बनी यह कैसी घटना ! ४३. मूलभूत बारह शास्त्रोंके उपरांत आगमों के विविध उपप्रकारोंके साथ ४५ जैन आगम-शास्त्रों के नामों को सूचित करनेवाली पट्टी इस पट्टीमें वर्तमानकालके श्रमण संघने जो ४५ आगमशास्त्र निश्चित किये है उन आगमों की पोधियों-पुस्तकोंको अपने नामके साथ लंबे रूपमें क्रमशः बताया गया है। इस द्वादशांगी की रचनाके बाद कालांतरमें बारहवें महाकाय दृष्टिबाद ग्रन्थका ज्ञान धीरे धीरे साधु भूल गये। ज्ञान लुप्त होने पर वह अंग भी नष्ट हो गया। फिर शेष ११ अंग रहे। पश्चात्वती आचार्यों ने उन अंगोंके उपांगरूप शास्त्रोंकी रचना की। उन शास्त्रोकी संख्या १२ है। तत्पश्चात् दस पपन्ना अर्थात् अलग अलग विषयों के ज्ञान की रचना हुई। तदनन्तर छह छेदसूत्रकी रचना हुई। तत्पश्चात् चार मूलसूत्र तथा दो चूलिकाओं की रचना हुई। इस तरह कुल ४५ की संख्या हुई। जैनोंके वर्तमान शास्त्र कितने है? इसके उत्तर में ४५ की संख्या कही जाती है। यह ४५ का अंक भी विविध परिस्थितिके कारण निश्चित नहीं है, अधिक संख्या भी हो सकती है। इस पट्टीका बहुत संक्षिप्त परिचय दे सके हैं। यह पट्टी ज्ञान विषयक होनेसे किसी ज्ञान से सम्बन्धित कार्यमें अथवा उसके उद्यापन विषयक कुंकुम पत्रिका में उपयोगी हो सकती है। ४४. नवग्रहों से सम्बन्धित रलोंके नाम, उनके वर्ष, रलको सप्ताहके किस बार पर कब धारण करना आदिका अत्यंत उपयोगी परिचय देनेवाली पट्टी यह एक अत्यन्त उपयोगी तथा संग्राह्य पट्टी है। सारी पट्टीका वर्णन करना चाहे तो बहुत पन्ने लिखे जा सकते हैं। फिर भी इस पट्टीमें बहुत सी बाबत स्पष्ट लिखी गई है। इस पट्टीमें मुख्य रूपसे सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु ग्रह है। इन नवों ग्रहोंको ध्यानमें रखकर प्रस्तुत प्रत्येक ग्रह के साथ किस रत्न का सम्बन्ध है, उस रत्नका अंग्रेजी नाम क्या है? उसका रंग कैसा है? इस रत्न को पहनना चाहे तो किस दिन पर और दिन के किस समय पर पहनना? जो जो ग्रह बाधा करते हो उनके लिए कैसे जाप किये जाएँ तथा उन रत्नोंकी आकृतियाँ G ucation International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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