Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 236
________________ का निमित्त बन जाता है। जगतमें पांडवयुगका माना जाता कोहिनूर हीरा आज भी प्रसिद्ध है। यह लन्दनके राजमहलमें शहनशाहके मुकुट में स्थित है। हीरोंकी प्राचीनकाल और वर्तमान में लिखी परिचय पुस्तके आज भी उपलब्ध है। वैज्ञानिक आविष्कारमें नये नये चमत्कार प्रस्तुत करनेमें हीरा महत्त्वपूर्ण रहा है। विज्ञानी इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ, उपग्रह आदि में इनका बहुत उपयोग करते हैं। वैद्य आज भी भयंकर रोगोंवाले दर्दियोंको उसकी भस्म बनाकर खिलाते हैं। भक्ति भरपूर आत्माएँ परमात्माको उसके बने मुकुट, माला आदि पहनाते हैं। समग्र विश्वमे और विशेषतः भारतमे हीरेके बेपार का आजकल जबरदस्त बोलबाला है। इसमें गुजरात, महाराष्ट्र सबसे अग्र है। विदेश में बेल्जियम आदि स्थलों पर हीरोंको तराशने के जबरदस्त यन्त्र है। हीरा अत्यन्त कठिन धातु है। किसी मामूली साधनसे वह तूट नहीं सकता, बड़े बड़े साधनोंसे वह तोड़ा जा सकता है। इस हीरेको छोटी बड़ी मशिनोंसे अलग अलग कट-आकार के बनाकर मारकेट में प्रस्तुत करते है। आकार देनेके बाद बेपार के लिए उसका मूल्य अनेक गुना बढ़ जाता है। वर्तमान में हीरके कितने आकार (कट) प्रचलित है उसकी एक पट्टी यहाँ प्रस्तुत की गई है, और उसके नीचेकी लाइनमें अलग अलग खाने में हीरेके कट-आकारके निश्चित नाम लिखे गये है। यह पट्टी हीरेके बेपारियोंको अधिक पसंद पड़ेगी। इतने सारे कट-आकार एक साथ में शायद ही किसीको देखने मिले, इस दृष्टिसे यह पट्टी हर किसी प्रेक्षक को आकर्षित करेगी यह निःशंक है। वरत्न अर्थात् हीरेके साथ शुक्र ग्रहका सम्बन्ध है। नवरस विषयक मेरी भूमिका मन इन्द्रियवाले अरबों जीव है। अतः उनके हृदयमें प्रवाहित होनेवाले रस भी अरबों की संख्यावाले हो सकते है लेकिन अरबोंकी गिनती या वर्णन असंभव सा होनेसे आर्य विद्वानोंने अरबों रसोंका वर्गीकरण करके उन रसोका नव रसमे समावेश किया है तथा साहित्य विभागके अलंकार शास्वमें नवरसों के भावोंका वर्णन किया है। यद्यपि अन्यत्र साहित्यादि ग्रन्थोंमें एक अन्य रसका अनागत समावेश करके अथवा गौण-मुख्यकी अपेक्षासे आठ भी कहे है, इस तरह नव अथवा दस रस भी बताये है। किसीने नूतन नाम का रस भी बताया है। जैसे कि-जैन शास्त्र के अनुयोगद्वार नामके श्रद्धेय आगमके सूत्र २६२ (गा. ६३) में नवरसोंको सूचित करते हुए व्युत्क्रमसे वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र बीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशांत इस तरह बताया है। इनमें वीडनक रस नया है। दूसरे ग्रन्थोंमें इस रस की चर्चा नहीं है। अनुयोगद्वारमे भयानक रस नहीं पाया जाता लेकिन इसके लिए स्पष्टता की गई है कि वहाँ रौद रसमें भयानक का समावेश किया होनेसे उसका अलग अस्तित्व नहीं बताया है। यह सब ग्रन्यकारोंकी बुद्धिकी विवक्षा है। वीडनक अर्थात् क्या? तो पूज्यकी पूजाका व्यतिक्रम अर्थात् अनादर जैसी परिस्थिति होने पर अथवा किसी गुप्त बात कहनेके पश्चात् व्यक्तिके अपने मनमें आंतरिक लज्जाका जो भाव उत्पन्न हो उसे वीडनक रसका आविर्भाव कहा जाता है। इस रसका मुख्य चिह्न लज्जा और शंकाशीलता है। आधुनिक अलंकार शास्त्रों में इस रसका कही उल्लेख नहीं है। 'भारत नाट्य ग्रन्थमे (आ. ६. श्लोक १५) शान्त रसके अतिरिक्त शृंगार, हास्य, करुण, रौद्ध, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत इन आठ रसोको सूचित किया है। मम्मट कृत 'काव्य प्रकाश' में शान्त रसकी वृद्धि करके नव रसोका वर्णन किया है। काव्यालंकार तथा काव्यानुशासनको भी वही नवरस अभिप्रेत है। रूदटने काव्यालंकारमें नवरसके उपरांत दसवाँ 'प्रेयान्' रस बताया है। ३७. नवरसेंको उत्पन्न करनेमें निमित्त बननेवाली वस्तुएँ विश्वप्रसिद्ध नवरसके भावोको व्यक्त करनेवाले चित्र चितरनेकी प्रथा प्राचीन कालसे चल रही है। परंतु मेरे मनको लगा कि जिन कारणोंसे ये रस पैदा होते है उन कारणों के चित्र अद्यावधि-आज पर्यंत किसीने बनाये हो ऐसा मालूम नहीं। शायद कल्पना भी न हुई हो ऐसा हो सकता है। साथ ही मैंने यह भी सोचा और किस रसके लिए कौनसा दृश्य-चित्र पसंद किया जाय इसका भी सोच-विचार करके दृश्य निश्चित किये और नवरसके नव कारणभूत दृश्योंकी पट्टी बनवाई गई। उदाहरणस्वरूप शृंगार रसकी अनुभूतिमें भले ही अनेक कारण हो लेकिन मुख्य कारण स्वरूप सुंदर स्त्री होती है, उसे देखनेसे इस रसकी उत्पत्ति होती है। अतः यहाँ पर इसे प्रथम स्थान दिया गया है। दूसरे स्थान पर सरकस के जोकर को रक्खा है, इसे देखकर प्रेक्षकोंमें हास्यरसकी अनुभूति होती है। इस तरह ये चित्र नवों रसों के कारण स्वरूप हैं और नव रस इनके कार्य रूप है। ३८. उत्पन्न हुए रसोंका विविध मुखाकृतियों द्वारा दर्शन इस चित्रपट्टी में नवरसकी पहली पट्टीमें उत्पन्न होते नवरसोंके भावोंको व्यक्त करनेवाले चित्र हैं। चित्रोंको देखनेसे तुरंत समझमें आ जाते हैं इस लिए अधिक समम-जानकारी देने की जरूरत नहीं है। ३९. हायके आवतों द्वारा जापके लिए सर्जन पाती विविध प्रकारकी आकृतियाँ किसी भी अक्षर, शब्द या मंत्रका जाप संख्या के साथ सम्बन्धित हो तो उसके लिए दो प्रकार अधिक अनुकूल होते हैं, या तो हाथमे मनकोंकी माला रक्खी जाए या उगलीके पोरोंसे गिर्ने। उंगलीके पोरोंसे गिनने की बात आने पर प्रस्तुत जापको अधिक प्रभावित या अर्थपूर्ण बनानेके लिए आवत्तोका निर्माण हुआ। माला रखनेकी, ढूढने की प्रगट-चिता ही नहीं रही। ७०. नावाकारोंने तो उन्य-जनक भावको उपलक्ष्य शृंगार, रौद, वीर, बीभत्स इन चारोंको मूल रस बनाकर जनक स्वरूप माने है। इन चारोंसे कमशः हास्य, काण, अद्भुत तथा भयानक रस जन्य अर्थात् उत्पन्न होते है, ऐसा कहकर सिर्फ चार रस की ही स्वीकृति की है। अन्यथा देखें तो रस असंख्य हैं। 9 Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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