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आदि वृक्ष की लेखिनीका प्रयोग होता है। तदनन्तर मन्त्रादिके पाठ द्वारा आदर-सम्मान पूर्वक यन्त्रकी आत्माको जागृत किया जाता है। इससे उसमें दैवी शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। इसके बाद यन्त्रको घरमें रखना अथवा अपने शरीर के अंग पर धारण करनेका विधान है। ये यन्त्र मानव जातिके उत्कर्ष और अभ्युदयके लिए यथोचित सहायता करते हैं। अधिक स्पष्टता करे तो ये विविध प्रकारकी शान्ति, पुष्टि, वशीकरण करनेमें, भूत-प्रेत आदि के निवारणमें तथा ऋद्धि सिद्धि विजय अथवा मनोरथों की सिद्धि आदि में चमत्कारिक प्रभाव भी बताता है।
इन यन्त्रोंको कौन, किसी विधिसे लिख सकता है? और इनका संस्कार कैसे करना, कहाँ किस तरह स्थापित करना, यन्त्र स्थापित करनेके पश्चात् उसकी पवित्रता किस प्रकार सुरक्षित रखना, पूजा-उपासना किस प्रकार करना, किस वर्णवाले को कौनसे यन्त्र फलदायक होते हैं आदि शेष बातें अन्य ग्रन्थों, तन्त्र मन्त्रविदों अथवा गुरुपरम्परासे जानें क्योंकि यह एक महाशास्त्र है। यहाँ कितना लिखा जाए?
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इस पट्टीमें आजकल अधिक उपयोगमें आनेवाले कुछ यन्त्र दिये गए हैं। ऐसा करके एक पट्टी यन्त्रविषयक प्रविष्ट की है। इसमें प्रथम दो प्रकारके पन्द्रह अंक ( पंचदशी) के यन्त्र हैं। बादमें चौतीसा, पैंसठिया, तिजयपहुत्तस्तोत्र गाथासन्दर्भित १७० जिनका तथा उसके बाद तीन प्रकारका बीसा यन्त्र दिये हैं।
३५. गर्भस्थित बालककी प्रथम माससे लेकर नौ मास तककी अवस्थाओं तथा अन्य बाबतोंका खयाल देनेवाली अति दुर्लभ पट्टी
इस पट्टीको देखकर क्षणभर पाठकोंको आश्चर्य होगा कि इस पट्टीकी क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर इस पट्टीके अंतमें प्रस्तुत लेखन को पढ़ने से मिल जाएगा। इस पट्टी की प्रस्तुतिके अनेक कारण हैं लेकिन लेखन मर्यादा के कारण अनेक बाबते महत्त्वपूर्ण रहने पर भी संक्षिप्त में लिखनी रहीं।
मैने सोचा कि जन्म होने के पहले नौ नौ महीने तक गर्भाशयकी अंधेरी कोठरीके जिस स्थान में बसेरा किया, संवर्धन हुआ उसका प्रत्यक्ष अनुभव डॉक्टरों के सिवा अन्य किसीको नहीं होता। 'क्ष' किरणोंके (एक्स-रे) यंत्र के अनुसंधान के पश्चात् इस यंत्र द्वारा गर्भाशयकी तस्वीरें खिंची गई तब गर्भस्थ की नौ महिनोंकी स्थितिका डॉक्टरोंको सही खयाल हुआ। फिर तो विश्वकी प्रजा भी इससे ज्ञात हुई।
हमारे यहाँ शास्त्रों तथा सज्जायोंमें गर्भाशयमें जीवको भोगने पड़ते दुःखों तथा जन्म समय होती पीड़ा का वर्णन किया गया है। मैंने सोचा कि अपनी प्रजाको गर्भावासका चित्रों द्वारा दर्शन करवाया जाए। जन्मके समय वह कितना सूक्ष्म शरीरी होता है। फिर हर मास किस प्रकार बढ़ता जाता है तथा पूर्व जन्ममेसे तैजस-कार्मण शरीरोंको लेकर आनेवाला जीव जन्म पाने को माताके गर्भ में प्रवेश पाने के साथ ही रज और वीर्य के अंदर किस तरह घुल-मिल जाता है। तत्पश्चात् कर्मकी थियरीके अनुसार तैजस (अग्नि शरीर) कार्मण शरीरमेंसे मनुष्यका शरीर जैन तत्त्वज्ञानकी परिभाषामें औदारिक होनेसे औदारिक शरीरकी रचना किस प्रकार शुरू करता है। प्रत्येक मास में शरीर की रचना किस तरह विकसित होती रहती है तथा नौ महिनों के अन्त में माताके उदरमें मस्तक नीचे तथा पैर ऊँचे इस स्थितिमें किस प्रकार स्थिर होता है इसका सही ख्याल मिलता है। शास्त्रमें वर्णित गर्भाशयके असह्य और भयंकर दुःखोंका वर्णन यहाँ नहीं दिया है।
नवाँ चित्र ध्यानसे देखिये। इस चित्रमें माता खड़ी है और आवश्यक पेट भी दिखाया गया है। पेटकें नीचे स्थित गर्भाशयमें बालक किस प्रकार किस आकारमें स्थिर हो पाया है इसे आप बराबर देख सकेंगे। नौ साढ़े नौ महिने के पश्चात् माताकी कुक्षिमेंसे जन्म लेने को बालक मस्तक द्वारा बाहर निकलता है। सुखद प्रसवके लिये और माता-बालक का हितके लिये यह नियम है।
माताके गर्भमे दो बालक जुड़वाँ किस प्रकार रहते हैं इसका खयाल देनेके लिए दसवाँ चित्र माता के गर्भाशय की ओवरी में लपेटे हुए दो बालको जुड़वाँ का प्रस्तुत है जिससे ओवरी क्या है इसका ख्याल आवे ।
तत्पश्चात् एक छोटासा चित्र दिया है जिसमें स्त्री के पेटके नीचेके पेडूमें गर्भाशय किस स्थान पर है इसे एरो (निशान) देकर बताया है। इसके नीचे जन्म स्थान जुड़ा हुआ है। गर्भधारण के निमित्तरूप पुरुष के शुक्रका जीवित शुक्र बिंदु और स्त्रीका चेतनयुक्त रज इन दोनोंका गर्भाशय में मिलन होने पर जीवकी उत्पत्ति हो जाती है। यहाँ उपादान कर्म और निमित्त इन दोनों का कैसा संधान है? और गर्भाशयमें किस तरह. किन किन सहयोगी कारणोंसे इनकी वृद्धि होती है तथा डॉक्टरों से चित्रों द्वारा इनके उत्पन्न होनेकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रोसेस क्रिया कैसी होती है इस विषय पर लिखना चाहे तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन यहाँ अप्रस्तुत होनेसे इस विषयका पूर्णविराम कर देते है।
इस पट्टीमें जीवकी उत्पत्ति के बाद प्रारंभ के २५ वें दिन मनुष्यके औदारिक शरीरका कैसा स्थूल आकार निर्मित होता है यह दिखाया है। फिर महीने के अन्त में आँख का निर्माण होने पर शरीर का विकास कैसा होता है यह दिखाया है। विकास प्रक्रिया आप स्वयं देख सकेंगे। माताकी ओवरीके साथ गर्भका संधान बताया गया है।
अंतिम कोष्ठक में प्रतिबोधित बोध को ध्यानसे पढ़कर हृदय में प्रस्थापित करें।
३६. हीरों - रत्नोंके वर्तमानमें प्रचलित विविध आकारों (विविध कटों) की बुर्लभ पट्टी
इस पट्टीके साथ प्रत्यक्ष रूपमें किसी धार्मिक बोधका सम्बन्ध नहीं है किन्तु परोक्ष रूपमें अनेक प्रकारसे सम्बन्ध रखनेवाली यह पट्टी है। धरती पर के समग्र जवाहरातोंके पितामह तथा सर्व रत्नों में सर्वोपरि माने जाते जवाहर की है, उसका नाम है वज्ररत्न। गुजराती में इसे हीरा और अंग्रेजीमें डायमण्ड कहते हैं। अंतिम बारह सालोंसे विश्वके महान् देशों में इसका बोलबाला है। यह हीरा अनादिसे अनंतकाल तक सर्वोपरि स्थान रक्खे हैं। इस रत्नका मूल्य भी सबसे अधिक होता है। एक सुपारी या बादाम जितने बड़े हीरेका मूल्य आज भी लाखों-करोडों रूपयोंका हो सकता हैं। हीरे अनेक प्रकारके और विविध रंगके होते हैं, हलके भारी भी होते है। साथ ही गुणदोषवाले भी होते हैं। कभी दूषित चिह्नवाला हीरा अगर घरमें आ जाए तो सर्व प्रकारसे अवनतिका कारण बन जाता है और दोष रहित गुणवान हीरा अगर घर में आ जाए तो उन्नतिकी चोटी पर ले जाने
६९. प्रस्तुत चित्र परदेशमें छपी शारीरिक विज्ञानकी पुस्तकसे उद्धृत किये हैं। वि.सं. १९८० के आसपास यह पुस्तक प्रसिद्ध हुई थी, भारत में इसका आगमन होनेवाला है ऐसा मालूम है।
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