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तथा (८) समाधि- धारणा सिद्ध होने पर, मनके अन्य संकल्प-विकल्पोंसे रहित होने पर प्राप्त होनेवाली मनकी प्रशान्त अवस्था अथवा आत्मस्वरूपमें स्थिर रहना।
योगमार्ग का साधक योगके इन अष्टांगोंका क्रमशः प्रयोग करते हुए, अभ्यास बढाता हुआ किसी समय 'समाधि' तक पहुँच जाता है और समाधि होने पर ईश्वर पद की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। बाय दृष्टिसे योगबल के द्वारा तन और मनके दोनों प्रकारके रोग दूर किये जा सकते है। तथा साधनाके बीच योग और तपके प्रभावसे विविध प्रकार की अद्भुत सिद्धियाँ-लब्धियाँ प्राप्त हो सकती है। इसके अतिरिक्त अनेक चमत्कारों का निर्माण हो सकता है। किन्तु सच्चा सात्विक योगी कदाचित् ही इसका उपयोग करता है। वह तो आत्माकी सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी सर्वोच्च कोटि की सर्वोत्तम सिद्धि को प्राप्त करनेमें ही तन्मय हो जाता है। आभ्यन्तर दृष्टिसे आत्मा आध्यात्मिक अवस्थाकी पूर्णदशामें पहुँचकर जीव-मुक्तिको निकट ला सकता है। इन दिनों योगके प्रति जनताका आकर्षण बढ़ रहा है। मौतिक समृद्धि के शिखर पर पहुँचे हुए तथा उसके सूखसे परितृप्त बने हए और बादमे मनकी अशांतिका सतत अनुभव करनेवाले योरप एवं अमरिका के मानव भी इस योगमार्ग के प्रति
बहुत ही आकृष्ट बनते जा रहे है। क्योंकि इससे उन्हें बाल्य दृष्टिसे भी मनकी अनेक प्रकारकी शान्ति और स्वस्थताका अनुभव होता है। ३०. अष्ट महा- द्वारपालके अर्थवाले प्रतिहारी शब्दसे 'प्रातिहार्य' बनता है। जैसे पहरेदार अपने स्वामीकी सेवा में सदा उपस्थित रहता है, उसी प्रकार ये प्रातिहार्य प्रातिहार्य - जिनेश्वरों-तीर्थकरोंकी सेवामे सतत खड़े रहकर तीर्थंकरों के पुण्य वैभव तथा गौरव का दर्शन कराते है। तीर्थंकरों को केवलज्ञान होते ही तत्काल उनके प्रबल
पुण्यप्रकर्षसे देव अशोकवृक्ष आदि आठ प्रातिहााँकी रचना करते है। इनकी उपस्थिति जिनेश्वरोंके आयुष्य पर्यन्त रहती है। इसलिए जब वे विचरण करते है अथवा देशना देते है तब इन प्रातिहार्यों की उपस्थिति रहती ही है। यह रचना लोकोत्तर भगवान वीतराग की भक्तिके लिए, तथा उनकी स्वयकी तथा उनकी वाणीकी महिमाको फैलानेके लिए करते है। ये प्रातिहार्य लोकोत्तर तथा सर्वोत्तम मानेजानेवाले व्यक्तिके अतिरिक्त दूसरोंको नहीं होते हैं। ये प्रातिहार्य समवसरण के चित्र तथा परिकर-परघरमें अथवा अरिहंत के चित्रमें दिखाने की प्रथा है। देवलोक के देव अपनी दैविक शक्तिसे इन प्रतिहार्योंकी रचना करते है।
प्रस्तुत पट्टीके बीचमें कमलासनस्थित प्रवचनमुद्रासे देशना देते हुए तीर्थकर बताये गए है। उनके दोनों ओर प्रातिहार्य दिखाए है। इनमें उनके नाम भी दिये है। अशोकवृक्ष पर छोटा चैत्यवृक्ष (केवल ज्ञान के समय का वृक्ष) भी बतलाया है। तीर्थकरों का चैत्य अर्थात् ज्ञानवृक्ष पृथक् पृथक् होता है। इसलिए यह वृक्ष अशोक पर पृथक् पृथक् होता है। शेष सात प्रातिहार्य सभी के समान है। दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य अर्थात् प्रवचन के समय वाद्योंकी दिव्य-म्वनिके द्वारा कर्णप्रिय संगीत के ऐसे मधुर स्वर-नाद प्रवाहित हों कि श्रोताओंमें उसका अद्भुत आकर्षण उत्पन्न हो, दुन्दुभि अर्थात् पूजा अथवा आरतीके समय बजाया जानेवाला नगाड़ा । तीन छत्रमें छत्र जिस क्रमसे अन्दर बताए गए है वही क्रम यथार्थ है। प्राचीन चित्र, परिकर तथा कतिपय पाषाण तथा धातु मूर्तियों में यही क्रम रहता है। मन्दिरोंमें भगवान पर लटकाये जानेवाले तीन छत्र इसी क्रमवाले होने चाहिए।
किन्तु बहुत से स्थानों पर उलटे क्रमसे लटकाये हुए रहते है यह सर्वथा अनुचित है और शास्त्रविरुद्ध है यह बात निर्विवाद है। . ३१. समवसरण समवसरण का सादे और समतल ढंगसे बनाया गया पहला गढ। अशोकवृक्ष के नीचे सुवर्ण कमलके सिंहासन पर भगवान विराजमान है।
पार्श्वभागमें इन्द्र है और चतुर्विध संघके अतिरिक्त देव-इन्द्र अपने नियमों का सम्मान करते हुए, दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक भाव-भक्तिसे (बारह प्रकारकी
भगवानके कल्याणकारी प्रवचनको श्रवण कर रहे है। साध्वी तथा स्त्रियों को खड़े रहकर देशना सुननेका अधिकार होनेसे उन्हें उसी रूपमें दिखाया है।
लोकभाषामें 'समोसरण' शब्दका प्रयोग होता है। ३२. समवसरण समवसरण का यह दूसरा गढ़ भी पहलेके समान सादे रूपमें दिखाया है। अशोकवृक्षके नीचे सुवर्ण कमल पर विराजमान अहिंसामूर्ति,
दूसरा गढ़- विश्ववत्सल भगवानका अहिंसा तथा मैत्रीका उपदेश सुनकर परस्पर-विरोधी ऐसे प्राणी भी भगवानकी वाणीके अद्भुत प्रभावसे जन्म-जात (पशु-पक्षियोकी समा) वैर-विरोध को भूल जाते है. यह भाव यहाँ प्रदर्शित हुआ है। ३३. अष्टमंगल- ये अष्टमंगल मध्ययुगीन कल्पसूत्र (पज्जोसवणकम्प) के चित्रोंके आधार पर चित्रित किये हैं। क्रममें कुछ परिवर्तन हुआ है। विशेष परिचयके
लिए देखिये पट्टी क्रमांक ३। ३४. यन्त्रा- विश्वके व्यवहारकी आधारशिला माने जानेवाले अक्षर और अंकोंकी महिमा विश्व-विख्यात है। इन दोनोंका अर्थगर्मित संयोजन एक विशिष्ट कृतियाँ - प्रकारकी सामूहिक शक्तिका प्रकटीकरण करता है। जिस प्रकार मन्त्रोंमें मन्त्रबीज सहित अथवा रहित शब्दों-व)का प्राधान्य है, उसी प्रकार यन्त्रोंमें
(विविध संख्यावाले अंक और अक्षरोंसे युक्त) आकृतियोंका प्राधान्य है।
यन्त्रोंकी अनेक जातियाँ है और उनके अगणित प्रकार है। इन यन्त्रोंको बनानेकी गाणितिक प्रक्रिया ऐसी है कि इससे लाखों यन्त्र बनाए जा सकते हैं। यन्त्र विशेष रूपसे अंकों से अधिक होते है। और उन्हें (प्रायः) किसी न किसी प्रकार की आकृति बनाकर रखा जाता है। ये आकृतियाँ भूमितिकी दृष्टिसे देखें तो मुख्य रूपसे समचतुरस्त्र, त्रिकोण, गोल, षट्कोण, लम्बचतुरस्त्र होती है। इन आकृतियोंमे कोष्टक-खानें बनाकर उनमें एक से लेकर हजारों की संख्या तक के अंक रख्ने जा सकते है। इन कोष्ठकों की संख्या को आड़ी, खड़ी अथवा किसीमें तिरछी, चाहे जिस ढंगसे गिने तो उसकी जोड प्रत्येक ओरसे एक ही संख्या आती है। कुछ यन्त्र बिना अंकोंके मंत्रबीज, अक्षर अथवा मन्त्रकी गाथाओं से लिखित भी होते है। कतिपय दोनोंसे मिश्रित होते है। कुछ गोल, चतुरस्र वलयोंसे वेष्टित होते है। कतिपय यन्त्र नर-नारी, पशु-पक्षी तथा वाद्य या शस्वादिक की आकृतियाँ बनाकर उनमें मन्त्रबीजों, मन्त्रपदों की स्थापना की हो वैसे होते है।
ये यन्त्र सोना, चांदी, तांबा, कौंसा आदि (बिनलोह) धातुओं के पतरे पर लिखाकर खदवाकर अथवा उभराकर बनाये जाते है। इनके अतिरिक्त भोजपत्र, कागज अथवा वस्त्र पर छोटे-बड़े अनेक प्रकारके सादे अथवा विविध रंगों में तैयार होते है।
उपर्युक्त माध्यमों पर तन, मन और वस्त्रादि की शुद्धि तथा विधि-भाव की श्रेष्ठ शुद्धि करके बताये गये आम्नायके अनुसार यन्त्र लिखना आरंभ किया जाता है और लिखनेके लिए अष्टगन्य अथवा केसर आदि शुभद्रव्यों का उपयोग किया जाता है। लिखनेके लिए सुवर्णशलाका, दाडिम
६६. तालवाद्य दुन्दुभिसे नगाड़ा ही समझाना चाहिए। यह अनेक ग्रन्थ, चित्र आदिसे निश्चित की हुई बात है। ६७ इसके लिए 'कोष्ठक चिन्तामणि' ग्रन्थकी रचना हुई है जो कि अमुदित है। ६८. यन्त्रों में बहुषा इस नियमका पालन हुआ है।
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