Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

Previous | Next

Page 232
________________ परमाणुओंको आत्मा लोहचुंबक की तरह खींचकर शीघ्र ही अपने ही आत्मप्रदेशोंके साथ उनको मिला देता है। यह मिलान जब जब होता है तब तब शीघ ही कर्म परमाणुओंमें चार प्रकार की परिस्थितियाँ एक साथ निश्चित हो जाती है। प्रथम उन-उन कर्मोंके स्वभाव क्या है? यह निश्चित होता है। सात अथवा आठ प्रकारके कर्म बांधते समय प्रस्तुत कर्म आत्माके किन किन मुख्य गुणोंको सँघते है यह निश्चित होता है, इसे प्रक्रतिबन्ध कहते है। दूसरा बन्ये हुए कर्म कितना समय आत्माके साथ जुड़े रहेगे इसका स्थितिकाल निश्चित होता है उसे स्थितिबन्ध कहते है। और तीसरा कार्य बंधे हुए कर्म आत्माको किस प्रकार के बाप और अन्तरंग शुभ अथवा अशुभ फल देगा तथा वह भी तीव्र कोटिका फल देगा या मन्द कोटिका इसका प्रकार निश्चित होता है। इसे शास्त्रीय परिभाषामें अनुभाग बन्ध अथवा रसबन्ध कहते है। और चौथा कार्य इन सब कार्मण वर्गणाओंके दलिकोंका जो ग्रहण होता है उनसे उस क्षण बंधनेवाले सात अथवा आठ कर्मोमें से किसको कितना भाग मिलता है इसका भी निर्णय होता है जिसे प्रदेशबन्ध कहा जाता है। वह कितने प्रमाणमें अथवा समुदायमें होता है यह भी उसी समय निर्णित हो जाता है और इस प्रकार उदयमें आता है। जगतमे मूर्खता या विद्वत्ता, सुख या दुःख, अमीरी या गरीबी, सम्यग्बुद्धि अथवा मिथ्याबुद्धि, अत्यागके परिणाम, उच्च या नीचकुल और अन्तराय ये सब उन उन रूपोंमें आत्मा द्वारा बाघे गए इन कौके उदय पर ही निर्भर है। समस्त संसारकी रचना, उसका समग्र संचालन, इस कर्मके आधार पर ही चलते हैं। इन सब कर्मोके व्यका सर्वथा क्षय हो तभी आत्मा निष्कर्म बनकर मुक्तात्मा बनती है। ये कर्म आठ प्रकार के है। जिनके नाम पट्टी में क्रमशः १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५, आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र तथा ८. अन्तरायं इस प्रकार लिखे है। इस पट्टीमें आठों कर्मों के केवल स्वभाव ही चित्र द्वारा दिखाये गए हैं। १. पहला ज्ञानावरणीय कर्म यह चित्र आँखों पर पट्टी बंधा हुआ बतलाया है। यह चित्र ऐसा बोध देता है कि ज्ञानावरणीय कर्म चक्षु पर बधे हुए वस्त्रकी पट्टी जैसा है। पट्टी बंधे हुए नेत्रोंवाला जिस प्रकार किसी वस्तुको देख या जान नहीं सकता है उसी प्रकार ज्ञान अथवा ज्ञानी की आशातना या उपेक्षादि के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म जीव यदि बांधता है तो उस जीवके ज्ञानरूपी चक्षुओं पर कर्मरूपी पट्टी आ जाने से आत्माके ज्ञान प्रकाश को आच्छादित करता है। इससे आत्मा किसी भी वस्तुको अच्छी तरह, स्पष्ट रूपसे अथवा पूर्णरूपेण जान-समझ नहीं सकता है, इतना ही नहीं, आत्मा अनन्त ज्ञानमय होते हुए भी अपनी केवल ज्ञान-शक्ति को प्रकट नहीं कर सकता। संक्षेप में तात्त्विक फलितार्थ यह है कि यह कर्म जीवोंके अनन्त कोटि के ज्ञानगुण को अवरुद्ध कर देता है। जैसी जैसी पट्टी वैसा वैसा ज्ञानगुण का अवरोध होता है। बुद्धि, समझनेकी शक्ति - स्मृति शक्ति आदि की न्यूनापिकता इस कर्मके न्यूनाधिक क्षयोपशमभाव पर आधारित है। २. दूसरा दर्शनावरणीय कर्म इसका स्वभाव प्रतिहारी-द्वारपालके समान कर्तव्य पालन करना है। एक मनुष्य राजा को देखना चाहता है किन्तु द्वारपाल या पुलिसमैन उसे अन्दर नही जाने दे तो फिर दर्शन कहाँसे हो? उसी प्रकार दर्शनावरणरूप द्वारपाल, आत्मा को किसी भी पदार्थ का दर्शन करने से रोक लेता है। तात्पर्य यह कि इस कर्म के उदयसे जीव पदार्थ का सामान्य बोध नहीं कर सकता है। यह कर्म आत्मा के अनन्त दर्शन गुण-सामान्य बोध के प्रकाश को क देता है। दर्शन के धर्म, श्रद्धा, सामान्यबोध आदि अनेक अर्यों में से यहाँ सामान्यबोध यह अर्थग्रहण करना चाहिए। चित्र में द्वारपाल हाथ से राजा के दर्शन के लिए निषेध करता हुआ दिखाया है। ३. तीसरा वेदनीय कर्म जो कर्म सुख अथवा दुःख का अनुभव कराये उस कर्म को वेदनीय कर्म कहते है। इसमें सुख का अनुभव करानेवाले कर्म को 'साता वेदनीय' तथा दुःख का अनुभव करानेवाले कर्म को ‘असाता वेदनीय' कहते है। इस कर्म के स्वभाव को मयु (शहद) लगाई हुई तलवार की पार के समान दिखलाया गया है। तलवार की धार पर लगे हुए शहद को चाटने पर जिस प्रकार मधुर स्वाद का अनुभव होता है वैसा अनुभव साता वेदनीय कर्म भोगते हुए होता है। और उसे चाटते हुए जीभ कट जाने पर जैसा दुःख होता है वैसा अनुभव असातावेदनीय कर्म भोगते समय होता है। इस कर्म के उदय से जीव को मीठे-कहुवे ऐसे बाहय सुख-दुःख के अनुभव होते है। और आभ्यन्तर दृष्टिसे तो यह कर्म आत्मा के अनन्त सच्चे सुख को रोक देता है। चित्र में मधु लिपटी हुई तलवार को चाटता हुआ चित्र बताया है। ४. चौथा मोहनीय कर्म इस कर्म के स्वभाव की मदिरा के साथ समानता दिखाई है। मदिरा पीनेसे मनुष्य जैसे अविवेकी, पराधीन और पूर्ण चेतनाहीन बन जाता है तब वह योग्यायोग्य का भान भूल जाता है। उसी प्रकार इस कर्म का उदय होने पर जीव सत्यासत्य, धर्म-अधर्म, कर्तव्याकर्तव्य अथवा उचितानुचित के विवेक से रहित हो जाता है। अयोग्य व्यवहार करता है। जीवन अस्तव्यस्त, स्वछन्दी बनता है। पाप-बहुल जीवन जीता है। मोह-मायामें मस्त रहता है। उसकी दृष्टि मिथ्या-मलिन रहती है। जिससे उसे पदार्थका सच्चा दर्शन नहीं होता। इसी प्रकार उसकी समझ विपरीत होनेसे उसके द्वारा सद्व्यवहार नहीं होता। इस कर्म को सात्त्विक फलादेश की दृष्टिसे सोचे तो यह आत्माके शुद्ध सम्यक्त्व गुण को तथा उसके अनन्त चारित्रगुण को भी ऊँक देता है। इससे त्याग का संस्कार उठने नहीं देता। चित्र में मदिरापान करता हुआ मनुष्य बताया गया है। ५. पाँचवाँ आयुष्य कर्म इसके स्वभाव को हथकड़ी-बड़ी अथवा कैदखाने के समान बताया है। जिससे जैसे हथकड़ी, बेड़ी अथवा कैदखानेमें पड़े हुए कैदी को उसकी निश्चित अवधि पूर्ण न हो तब तक उसमें निश्चित रूपसे रहना पड़ता है उसी प्रकार इस कर्म के उदय से चारों गतियोंमें किसी भी विवक्षित शरीरमें उत्पन्न जीवको मृत्यु पर्यन्त उसी गतिमें जीवन बिताने की आवश्यकता पड़ती है। इस कर्म का भोग पूरा न हो तब तक उसे उसी गति में अथवा ग्रहण किये हुए शरीर में रहना ही पड़ता है। इस कर्म का अस्तित्व आत्मा के अक्षयस्थिति नामक गुण को रोक रखता है। यहाँ चित्र में नियत अवधि की सजा प्राप्त मनुष्य को दिखाया है। ६. छठा नाम कर्म इसका स्वभाव चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार विविध प्रकार के रंगों द्वारा अनेक प्रकार के चित्र बनाता है वैसे ही यह कर्म जीवोंको चारों गति और पाँचों जातियों में विविध प्रकार के आकारोंवाले विविध प्रकार के रूप, रंग, गन्ध, रस और स्पर्शवाले शरीरोंको प्राप्त करता है। १५८ducation International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301