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हुआ था। उसने जैनधर्मका अठारह आलमों में जयजयकार करवाया था। संप्रतिका इतिहास बहुत अल्पमात्रामें प्राप्य है, जब कि महामेघवाहन सोट् खारवेलका केवल नामोल्लेख 'आवश्यक चूर्णि' अथवा 'हेमवंत रविरावली' में मिलता है। शोचनीय बात यह है कि उनका कोई विशेष
इतिहास उपलब नहीं है। २१-२२. सोलह २१ और २२ क्रमांक की दोनों पट्टियोंमें मिलकर १६ विद्यादेवियाँ चित्रित की गई है। इन विद्यादेवियोंके नाम उस पट्टीमे संख्याके विद्यादेवियाँ - क्रमांक के साथ बताये है। विद्यादेवियोंके जो नाम है, वे ही 'विद्याएँ है। प्राचीन कालमें उन उन विद्याओंकी साधनाएँ कुछ लोग करते भी थे।
वसुदेवहिन्डी तथा अन्य ग्रन्योंमें रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वैरोटया आदि विद्यादेवियोंकी साधना करने के उल्लेख मिलते है, इसीसे ज्ञात होता है कि जो नाम है उन्हीं नामोंकी १६ विद्याएँ है और विद्यादेवियों उनकी अधिष्ठात्रियों है।
ये विद्यादेवियाँ हमने कल्पसूत्र में इनके चित्र किस पद्धतिके है इसका ज्ञान हो इस दृष्टि से मध्ययुगीन कल्पसूत्रकी पद्धतिसे-उनकी नकलके रूपमें ही चित्रित किये है। उनके आयुध और वाहन जो थे वे ही रखे है, ये स्पष्ट दिखाई देते है इसलिए इनका यहाँ वर्णन नही दिया है।
इसके वर्णनमे अन्य ग्रन्थोंमें कुष्ठ विकल्प दिये गये है। इन देवियोका स्मरण नवस्मरणादि स्तोत्रों में होता है। विद्या-मन्त्र पटोमे भी चित्रित करते है। तथा अनुष्ठानों अथवा मन्बसाधनाओमें इनका पूजन भी किया जाता है।
___ आबूके गुंबजमें विद्यादेवियोंकी संगमरमर (आरस) की सुन्दर खड़ी मूर्तियाँ है। प्राचीन ताडपत्र्यादि प्रतियों में भी ये चित्ररूपमे प्राप्त होती है। २३. पशु चित्र- यह विविध पशुओंकी पट्टी है। मध्यकालीन जैन कल्पसूत्रमें जिस पद्धतिसे पशुचित्र चित्रित थे उनकी नकल करके उसी रूपमें यह पट्टी यहाँ
२४. दस दिक- बीचोंबीच-कायोत्सर्गासन-खाइगासनमें तीर्थकर की मूर्ति बनाकर उनकी उपासना करते हुए वैमानिकादि निकायके दस दिक्पालोंको यहाँ पाल देव - चित्रित किया गया है।
दिक्पाल अर्थात् चार दिशा, चार विदिशा और ऊर्ध्व तथा अथो दिशाएँ। इस प्रकार दसों दिशाओ पर अपना-अपना अधिकार रखनेवाले और इसके आधार पर ही उनके पालक कहे जानेवाले देव। इन देवोंको दिशाके चिन्तक और रक्षक कहा गया है। जैनोंके छोटे अथवा बड़े शान्तिस्नानादि अनेक अनुष्ठानों में पहले यह पूजा होती है। बलि-बाकुले भी दिये जाते है। इनमें१. पूर्व दिशाका स्वामी इन्द, २. अग्नि दिशा का स्वामी अग्नि, ३. दक्षिण दिशाका स्वामी यम, ४, नैऋत्य दिशाका स्वामी निति, ५. पश्चिम दिशाका स्वामी वरुण, ६. वायव्य दिशाका स्वामी वायु, ७. उत्तर दिशाका स्वामी कुबेर, ८. ईशान दिशाका स्वामी -ईशान, ९. ऊर्ध्व दिशाका स्वामी ब्रह्म और १०. अपोदिशाका स्वामी नाग है। ये दिक्पाललोकपाल, उन उन दिशाओंमें जो जो कार्य चल रहे होते है, उन पर ये अपना आधिपत्य रखते है, इसीलिए “यम' लोकपाल दक्षिण दिशाका अधिपति होनेसे उसका अपमान न हो इसलिए दक्षिण दिशाके सामने पैर करके न सोनेका प्रचलन है, क्योंकि संभव है कि वह बीनकर कभी किसी मनुष्यको कुछ कष्ट पहुँचाए!
चित्रमे इन दिक् अथवा लोकपालोको भगवान तीर्थकर की सेवा करते हुए अपने-अपने आयुधों और वाहनोंके साथ बताया गया है। क्या ये दिकपाल ही वे लोकपाल ? इसका उत्तर अन्य ग्रंथोंसे प्राप्त करे। ___ इन दिक्पालोंके आयुधों तथा वाहनोंके सम्बन्धमें जैन-अजैन ग्रन्थोंमें अनेक विकल्प सूचित किये गये है। यहाँ हमने अमुक पद्धतिका अनुसरण
करके दिखाया है। २५. नवग्रह - बीचोंबीच पार्श्वनाथ भगवानकी मूर्ति बनाकर, उनकी सेवा करते हुए, आकाशमे स्थित नवग्रह दिखाये है। इनके नाम, वाहन तथा आयुध
आदि चित्रमें स्पष्ट रूपसे दिखाये है। ये ग्रह तीसरे ज्योतिष्क निकाय के देव है। ये विमानवासी है और ये विमान पर है। जैन शास्त्रके अनुसार सूर्यके बाद चन्द्र और उसके बाद ग्रहोंका स्थान है।
ये जैन पद्धतिसे चित्रित ग्रह है। फिर भी अन्य ग्रन्थोंमें तथा अजैन ग्रन्थोंमें इनके भी विकल्प दिये गये है। इस चित्रमें किस ग्रहके साथ किन तीर्थकरोंका सम्बन्ध है, इसके ज्ञानके लिए चित्रके नीचे उन उन तीर्थकरोके नाम भी दिये है। चित्रमे संख्या के अंक भी लिखे है ताकि जिससे जिसे जिस ग्रहका जप करना हो उसे उसकी सुलभता हो। इन ग्रहोंके नाम के आधार पर ही वारोंके नाम पड़े हैं। ८८ ग्रहोंमें सात अथवा नौ ग्रहोंका प्राधान्य है। ग्रहोंके आधार पर मनुष्योंका त्रैकालिक भविष्य भी देखा जाता है। मानवीका सुख दुःखमें भी वे निमित्त कारण बनते है।
परिकरवाली पाषाण अथवा धातुकी मूर्तिके नीचे आठ या नौ ग्रह बतानेकी मुख्य विशिष्ट प्रथा है। बृहत्शान्ति आदि अनेक स्तोत्रोंमें उसका
स्मरण और प्रार्थना दी गई है। शान्तिस्नात्रादिके प्रसंग पर उसकी प्रार्थना, पूजा और जप किया जाता है। २६. अष्टकर्म- चौदह राजलोकमें, बाहमें वायु जिस प्रकार व्याप्त है और षड् दव्य जिस प्रकार लोकाकाशमे सर्वत्र व्याप्त है इसी प्रकार जैन जिसे 'कर्म'
शब्दसे व्यक्त करते है, उसके पुद्गले स्कन्ध अर्थात् कार्मण नामक वर्गणाके स्कन्ध लोकाकाशके नामसे विख्यात अखिल विश्वमे सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित है। जो कर्म पुद्गलोंसे जाने जाते है। जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चारों हों उसे पुद्गलव्य कहते है। अतः पुद्गल एक प्रकारका जड़, अचेतन द्रव्य-पदार्थ ही है। इसे अतीन्द्रिय ज्ञानीजन ही देख सकते है। ये कर्म-पुद्गल स्वयं जीवको सुख-दुःख देनेमें समर्थ नहीं होते, किन्तु जीव मन, वचन अथवा काया द्वारा जब जब शुभाशुभ प्रवृत्ति करता है तब तब उस स्थान पर होनेवाले कार्मण वर्गणाके पुद्गल
५७ खारवेल' एक महान् जैन सपाट वा। खारवेलके पास आदीश्वर भगवानकी मूर्ति थी। वह ठोस सुवर्णकी और रत्नोसे नही हुई थी। बादमे उत्तका नाम बारवेलने 'कलिगजिन रखा था। इस प्रतिमा का वार्षिक महोत्सव होता था तब कलिंगदेशकी समग प्रजा उसमें शामिल होती थी। यह मूर्ति अब कहाँ ? यह शोषका विषय है। ५८ लोकपालोकी संख्यामे विकल्प है। ५९, सूर्यका दूसरा नाम आदित्य, मोमका चन्द, मंगलका भौम, गुरूका बृहस्पति और शनिका शनैश्चर है। ६०. निर्विभाज्य अशका नाम परमाणु है। ऐसे परमाणुओं का समुदाय स्कन्ध कहलाता है। कर्मयोग्य पुद्गल स्कन्ध अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदावरूप होते है। और कर्मस्कन्ध समप्र लोकमें सर्वत्र स्थित है।
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