Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 229
________________ १३. धर्म प्रवचन - पूर्ण प्रसिद्धि प्राप्त सुन्दर और लाक्षणिक चित्र। एक जैन धर्मगुरु उद्यानमें बाजोठ के नामसे प्रचलित काष्ठासन पर बैठकर चतुर्विध श्री संघको धर्मोपदेश सुना रहे हैं। सामने 'स्थापनाचार्यजी' स्थापित है। तदनन्तर क्रमशः साधुसमुदाय, राजगण, श्रावक, साध्वीजियाँ और श्राविकाएँ विनयपूर्वक विशिष्ट आसन पर बैठकर दोनों हाथ जोड़कर प्रवचन सुन रहे हैं। पीछे सेवा करता हुआ शिष्य खड़ा है। चित्रमें सामने बैठे हुए साधुके हाथमें शास्त्र लिखा हुआ लम्बा ताडपत्र का पत्र है। बगलमे रजोहरण-ओघा है। पैरों पर बैठकर वाचना ले रहे हैं। उपदेशककी भाववाही मुद्रा, प्राचीन कालमें पुरुषोंमे लम्बी दाढ़ी रखने और जूड़ा बाधनेकी प्रथा थी वह इसमें दिखाई देता है। चित्रमें सभी की वेषभूषा देखने जैसी है। १४. वाद्य यन्त्र के प्रकार - १५, १६, १७. जिन परिकर - (परचर ) Jain Education International 14 स के प्रकारों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी प्रकारों का समावेश होता है। द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रिय) जीवोंके रूपमे चित्रपट्टीने शंख, कौड़ी, जरोह आदि बताये गये है। तेइन्द्रिय-त्रीन्द्रियमे चींटी, खटमल, चींटे ( मकोडे), चउरिन्द्रिय- चतुरिन्द्रियमें बिच्छू, मच्छर, मक्खी आदि और पंचेन्द्रियमें तिर्यंच पंचेन्द्रियके तीन प्रकारों में जलचर, स्थलचर, तथा खेचर ( आकाशमें उड़नेवाले) बताए गये है। उसके बाद देव-विमान की आकृति से सभी जाति के देवों को, राजाके चित्रसे सभी जातिके मनुष्योंको तथा खम्भे के साथ जुड़े हुए जीव और पार्श्व भागमें खड़े हुए परमाधामी देवके चित्र से नरक के जीवों को सूचित किया गया है। विश्वमें हजारों प्रकारके वाद्ययन्त्र हैं। उन सभी का समावेश ( प्रायः) मूलभूत चार वर्गों में ही होता है। उनके नाम इस प्रकार है- १. तन्तु, २. सुषिर, ३. घन और ४. चर्म यहाँ यह ध्यानमें रखना चाहिए कि किसी भी वाद्य की ध्वनि वायु द्वारा होनेवाली कम्पन क्रिया से उत्पन्न होती है। तन्तुबाध तन्तु' अथवा तारवाले होते हैं। और इसी लिए उन्हें तन्तु-तारवाद्य भी कहते हैं। ये वाद्य अंगुली अथवा गज वगैरह के घिसनेसे बजते हैं। इन वाद्योंमें वीणा, सितार, सरोद, सारंगी, दिलरूबा, तानपुरा आदि का समावेश होता है। सुषिर बाध— मुँहकी हवा अथवा अन्य साधन द्वारा हवा का दबाव होने से बजते हैं। सुषिर का अर्थ है छिद्र। इसमें हवा जाने से और साथ में उंगलियोंका उपयोग करनेसे जो बजता है वह। इसमें शंख, बाँसुरी, पावा, शहनाई, रणसिंगा, पीपी, सीटी आदि की गणना की जा सकती है। धन बाथ एक दूसरे के टकरानेसे बजनेवाले होते हैं। अथवा जो बहुत ही तेज़ आवाज से बजनेवाले हों उन्हें धन वाद्य कहते हैं। इन वाद्यों में काँसे के जोड़े, मँजीरे, लेझिम आदि की गणना की जा सकती है। चर्मवाद्य में चमडेसे मढ़े हुए वाद्य आते हैं। ये वाद्य हाथ, यष्टि, आदिसे बजते हैं। इसमें तबले, मृदंग, पखावज, दुन्दुभि, ढोल, पटह, डमरू, खंजडी, ताशे आदि का समावेश किया जाता है। इस चित्रपट्टी में चारों प्रकार के वाद्योंका नामनिर्देश के साथ आलेखन किया गया है। कुछ लोग चार के स्थान पर तीन प्रकार मानते हैं। वे लोग घन और चर्म वाद्यों का समावेश ताल शब्द जोडकर तालवाद्य में कर लेते हैं। इसका कारण यह है कि घन और चर्म ये कोई संगीतके रागोंको व्यक्त करनेवाले वाद्य नहीं है, ये तो सूरावलि में ताल देनेवाले वाद्य है। इसलिए इन सभी को तालवाद्य के प्रकारोंमें गिन लेते हैं। तीनों चित्रपट्टियों में जिनमन्दिर-दहेरासर में विराजमान तीर्थंकर देवकी मूर्ति की पार्श्वभूमिका में स्थापित किये जानेवाले परिकर की है। परिकर' संस्कृत भाषा का शब्द है। जैन लोग भाषा में इसे 'परघर' कहते हैं। परिकर का अर्थ परिवार, परिजन अथवा समूह होता है। जिसमें देव, देवियाँ आदि परिवार हो उसे परिकर कहते है। अधिकांश जैन लोग परिकर में क्या आता है? यह किस लिए होता है? इसके बारेमें नहीं जानते है। वे घरमें बैठे-बैठे भी इसके सम्बन्धमें कुछ ज्ञान प्राप्त कर सके इसी दृष्टि से इसकी तीन पट्टियाँ यहाँ चित्रित करवाकर दी गई हैं। इनमें परिकर में आनेवाली वर्तमानमें प्रचलित सभी वस्तुएँ बतलाई हैं। उनका परिचय इस प्रकार है१५ नंबर की पट्टी - मूर्ति के ऊपर के भाग में अर्धवर्तुल आकार का जो भाग होता है उसे यहाँ सीधे-सपाट रूपमें दिखाया गया है। इस भागमें गीत वाद्य के साथ जन्मोत्सव मनाने के लिए जाते हुए देवों की अभिषेक यात्रा दिखाई है। इसके बीचोंबीच तीन छत्रों पर दोनों हाथोंसे शंख बजाता हुआ खड़े पैरों पर बैठा हुआ एक देव दिखलाया गया है। उसकी दोनों ओर मेरूपर्वत पर जन्माभिषेक का उत्सव मनानेके लिए आकाश मार्गसे जाते हुए जलकलशधारी हाथी पर बैठे हुए इन्द्र तथा मृदंग बजाते हुए गान्धर्व देव और शंखवादक देव के नीचे मूर्ति के ऊपर प्रातिहार्य के रूपमें रखे जानेवाले तीन छत्र हैं। इनके बाद भगवान के कर्णके दोनों भागोंमें रखे जानेवाले कमल दण्डधारी, तत्पश्चात् उनकी समान्तर रेखामें वर्तमान दोनों ओर की छोटी मूर्तियों की देहरियोंके शिखर, परिकर के (सर्वोपरि ) सबसे ऊपरके वर्तुलाकार भागमें की जानेवाली हंस पक्षियोंकी श्रेणी, एवं उसके बाद की गई कमल की पंखुडियाँ, चित्रपट्टीमें ऊपरकी दोनों पंक्तियोंमें तथा अन्तमें शोभाके लिए किये जानेवाले मयूर और शुक के युगल (जोड़े) दिखाए हैं। कुछ परिकरोंमें ऊपर के भाग पर गान्धर्व देव देवियोंकी पट्टी होती है किन्तु वह इसमें नहीं है। इस प्रकार इन दिनोंमें बननेवाले परिकरोंमें सामान्य रूपसे जो सामग्री रखी जाती है उसका यहाँ दर्शन करवाया है। प्राचीनकालमें परिकर विषयरचना और कलाकी दृष्टिसे विविध प्रकारसे बनते थे। आजकल कलाका अनुराग कम हो जानेसे अथवा इस प्रकारकी दृष्टि - लक्ष्य न होनेके कारण या पूर्ण व्यय न कर सकनेके कारण इन दिनों (प्रायः) गतानुगतिपूर्वक सादे और लगभग एक ही प्रकार के परिकर बन रहे हैं। जिससे उसमें दूसरोंको शायद ही नवीनता अथवा सुंदरता देखनेको मिलती है। जबकि प्राचीन कालके परिकरोंमें विविधता कलादृष्टि, सुरेख और ओकर्षक शिल्प सुंदर रूपमें देखनेको मिलता है। ४५. जीवकी इन्द्रिय संख्या तथा उसके स्वरूप के बारेमे शास्त्र तथा आजके विज्ञानियोंके अनुभवके बिच तफावत देखने को मिलता है। ४६. इसके 'तत' और 'तांत' ऐसे नाम भी है। ४७. चर्मवाद्य को संगीत के कुछ ग्रन्थोंमें 'आनद्ध' अथवा 'अवनद्ध' शब्द से अभिव्यक्त किया है। आनद्धका अर्थ है लपेटा हुआ, मड़ा हुआ, चढ़ाया हुआ और ये वाद्य चमडेसे मढ़े हुए ही होते है। ४८. कुछ वाद्य ऐसे होते है कि जिनका स्वतंत्ररूपसे किसी भी एक प्रकारमें समावेश नहीं किया जा सकता, , जैसेकि हारमोनियम और विदेशका पियानो आदि। तब इन्हें मिश्र प्रकारमे गिनना पड़ता है। इन वायोमे सुचिर और घन ये दोनों प्रकार घट सकते हैं। ४९. ये पट्टियाँ चेम्बूर (बम्बई) के मूल गर्भगृह के परिकर के आधार पर बनाई गई है। ५०. यद्यपि प्राचीन परिकर विविध प्रकार में मिलते है तथापि गुजरात में जो कुछ देखे जा सके उनमें स्पष्ट, सुरेख तथा सूक्ष्म शिल्पकी दृष्टिसे उत्तम पाटन के खडाखोटडी मुहल्लेका (पाडेका) तथा उभरते हुए यावत् नखशुद्ध शिल्पकी दृष्टिसे देखे तो अहमदाबादकी निशापोलके भूगर्भगृहके जगवल्लभ पार्श्वनाथ का परिकर उत्तम कोटिका है। For Personal & Private Use Only: १५५ www.jainelibrary.org

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