Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 227
________________ बाह्मी लिपिकी महत्ता ब्राह्मी लिपिको लिपिविदोंने आजकी विद्यमान हजारों लिपियोंकी माता के रूपमे परिचित कराया है। भारत की समस्त लिपियोका मूल बाहमी लिपिको बताया है। अतः ब्राह्मी लिपि को माता और अन्य लिपियों को उसके वंश विस्तार के रूपमें समझना चाहिए। यह लिपि व्यवस्थित रूप से निर्मित, किसी भी अन्य लिपि के अनुकरणसे रहित, जैसा लिखा जाए वैसा ही बोला जाए और जैसा बोला जाए वैसा ही लिखा जाए वैसी है। इसी लिए यह एक विकासोन्मुख वैज्ञानिक डंगसे सुनियोजित वर्णमालावाली लिपि मानी जाती है, और अनेक कारणोंसे इसे एक सार्वदेशिक लिपि माना जाता है। जैनग्रन्थ इसे 'आर्य-लिपि' कहते है। इसी लिपिमें जैन-बौद्ध धर्मशास्त्र लिखे गए थे। वर्तमान नागरीका प्राचीन स्वरूप है बाह्मी और इसका अर्वाचीन स्वरूप है वह नागरी। यह वाहमी लिपि प्रादेशिक भेद और लेखनभेद के कारण धीरे धीरे ऐसी परिवर्तित हुई कि ब्राह्मी के मूल मोड़ों को ढूंढनेका कार्य कठिन हो गया। लिपि वस्तु ही ऐसी है कि वह सदा परिवर्तनशील ही रहती है। पांचवे कोष्ठक के संबंध में इस कोष्ठकमें लिपिसे सम्बन्ध प्रकीर्ण बाते दी गई है। इसमें ब्राह्मी और जैन लिपिका & दिया गया है। इसके पश्चात् कमशः अनुनासिक वर्ण, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय वर्ण, अनुस्वार, विसर्ग, संयुक्ताक्षर स् और वर्ण दिये गये है। तदनन्तर बहुतप्रचलित तीन मन्त्रबीच, दीर्घ स्वर-ऊ तथा कम् ल व र म् इन सात व्यंजन वर्णाक संयोजन से बननेवाला"पिण्डाक्षर अथवा कटाक्षर दिया गया है। इसके बाद जैन लिपिमें विशेष रूपसे प्रयुक्त १४ संयुक्ताक्षर, फिर जैन, अजैन लिपि की आवश्यक १ से ९ तथा शून्यकी अंक संख्या और अन्तमें प्राचीन लिपिमें प्रयुक्त एवं अर्वाचीन लेखनकला में प्रचलित चिह्न दिखाए गए है। यहाँ अग्रमात्रा अथवा पृष्ठमात्रा के नमूने आदि नहीं दिखाए गए है। ६. चौदहस्वप्न- तीर्थकरोंके गर्भावतरण के पश्चात उनकी माताओको मध्यरात्रिमें आनेवाले १४ महास्वन। ये महास्वप्न सर्वोत्तम पण्यशाली ऐसे भगवान के गर्भ के प्रभावसे ही आते है। और इसी कारण ये स्वप्न तीर्थकर की ही आत्मा अवतरित हुई है, इसका सूचन करनेवाले है। पहले तीर्थकरकी माता चौदह स्वप्नोमे पहले वृषभको और बादमें गज, सिंह, लक्ष्मी आदिको देखती है। जबकि बाईस तीर्थकरोकी माताएँ स्वप्नमें प्रथम हाथीको और उसके बाद वृषभ, सिंह आदिको देखती है। किन्तु चौबीस तीर्थकर भगवान श्री महावीरकी माता प्रथम स्वप्नमें सिंहको और उसके अनन्तर गर्ज, वृषभ आदिको देखती है। इन स्वप्नोंके दर्शनसे, देखनेवाले अथवा उसके कुटुम्बको कल्याण, सम्पत्ति, आरोग्य, सन्तोष, दीर्घायु तथा उपद्रवोका अभाव आदि फलोकी प्राप्ति शास्त्रोमे दिखाई गई है। इन चौदह स्वप्नोंको उनके नामोके साथ यहाँ चित्रित किया गया है। ७. सातस्वर - स्वर असंख्य हो सकते है। किन्तु उन सबका वर्गीकरण करके उनका सात में ही समावेश किया गया है। बटवृक्ष के समान विराट शब्दबमका सात स्वरोका मण्डल ये बीज है। संगीतको ‘पञ्चम वेद' जैसी उपमा दी है। कैसी अद्भुत बात है? कैसी अद्भुत लीला? असंख्य वोंसे गाये जानेवाले रागोका मूल केवल ये सात स्वर ही है। यहाँ 'सारेगम' आदि सात स्वरों को ही बताया गया है। इन स्वरोंके प्राकृत नाम क्रमशः सज्ज, रिषभ, गं (गा?) थार, मज्झिम, पंचम, धैवत तथा निसात है। संगीत शास्त्रमें इनके क्रमशः षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये नाम है। पहज जिह्वा के अग्रभागसे, ऋषभ छातीसे, गान्धार कण्ठसे, मध्यम जिह्वाके मध्य भागसे, पंचम नाभिके भागसे, पैवत दन्तोष्ठ स्थानसे तथा निषाद मस्तकसे उत्पन्न होते है। २७. शास्त्रोमे जहाँ लिपियोंकी नामावली मिलती है वहाँ पहला उल्लेख 'बाहूमी' का ही होता है। जैन आगम अंगोमे पाँचवे अंग भगवतीजी सूत्र का प्रारम्भ णमो बंभीए लिविए' सूत्र से ही हुआ है। अर्थात् प्रारम्भमे ही बाहमी' लिपिको नमस्कार किया है। लिपि भी कितनी सम्मान्य और आदरणीय वस्तु है, इसका निर्देश इस सूत्र से प्राप्त होता है। २८. देखिए- पन्नवणा, समवायांग' और 'चउपन.चरिय' गन्धों के उल्लेख २९. देखिए- 'ललितविस्तरा। ३०. बाह्मी लिपिके सभी वर्गोंके मोड़ बदल गए है किन्तु एक वर्णने अपने मूल स्वरूप को नहीं छोड़ा है। इसी कारण र हठीला वर्ण कहा जाता है। जिद्दी अथवा मूर्ख व्यक्तिको द जैसा कहा जाता है उसका कारण यही है। ३१. लिपि सदा कालभेद अथवा देश मेदसे परिवर्तनशील ही रहती है। ऋषभदेव भगवान द्वारा बतलाई गई लिपि और तीन हजार वर्ष पूर्व की अथवा आगम - लिखित काल की लिपिके बीच क्या अन्तर होगा, यह निर्णय करनेका निर्णयात्मक कोई साधन नहीं है। ३२. ये वर्ण बावन अक्षरकी गणनामेसे है। ३३. पिण्ड अर्थात् समूहा समूह वाँसे निष्पन्न अक्षर पिण्डाक्षर कहलाते हैं। इस अक्षरको लिखते है तबकूट अर्थात् शिखर बैसा दिखाई देनेसे वह कूटाक्षर बनता है। इसे संयुक्ताक्षर अथवा जुड़े हुए अक्षर भी कहते है। इसकी संख्या मे कुछ मतभेद है। ये अक्षर क से ह तक के सभी अजनोंसे बनते हैं। यहाँ क् से आरम्भ होनेवाला आद्याक्षर बताया है। अन्य अक्षर छ, ग् से आरम्भ होनेवाले समानने चाहिए। कूटाक्षर ३२ से ३५ संख्या के बीच के आते है। इसका सपूर्ण बलय कैसा होता है इसके लिए देखे मेरे द्वारा सम्मादित -मुदित अविमणलक्छ। ३४. सबसे अधिक तीर्थकरोकी (अर्थात् बाईस की) माताएँ चौदह स्वोमे पहले हाथी को देखनेवाली होनेसे शास्त्रमें पहले हाथी का उल्लेख किया है। इसीके आधार पर स्नात्रपूजामे पहले गजवर दीठो' कहा जाता है। ३५. यदि तीर्थकरकी आत्मा स्वर्गसे अवतरित होकर आती हो, तो उसकी माता बारहवें स्वप्नमें 'विमान को देखती है और यदि नरकसे निकलकर आती हो तो उसकी माता भवन (भव्य गृह-आवास) को देखती। ३६. दिनम्बर संप्रदाय सोलह स्वपोका दिखाई देना मानता है। ३७. तीसरे आगम अंग ठाण' में पहज स्वर-नासिका, कन्न, छाती, तालु, जिल्बा और दांत इन छह स्थानोंके आश्रयसे उत्पन्न होनेके कारण बहन' कहलाता है। तथा नाभिसे उत्पन वायुकण्ठ मस्तकये आहत होकर बाहर निकलता है तब वह बैलके समान आवाज करता हो, ऐसा आभास होने के कारण उसे ऋषभ (रिषभ) कहते है। अन्य स्वरोंके लिए देखिये ठाणांग सू. ५५३, उ.०३, स्वरमण्डल तथा संगीतसे सम्बद्ध वर्णन दृष्टिवाद नामक बारहवे अंगके एक महत्वपूर्ण अशरूप पूर्वगत के विविध प्राभृतो में से 'स्वरमाभृत' में था। आज यह ग्रन्थ नष्ट हो गया है। १८. 'स्थानाग' और 'अनुयोगवार इन दोनो आगोमें मतांतर से पैवतके स्थान पर अप्रसिद्ध रैवत' शब्द दिया है। क्या अति प्राचीन कालमे वस्तुतः पैवत के स्थान पर रैवत रहा होगा? इस आगममे दिया हुआ स्वरमहलका वर्णन संक्षिप्त होने पर भी जानने योग्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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