Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 225
________________ प्रकारके घडेकी आकृति। छठा मंगल 'भद्रासन' अर्थात् बैठनेका आसन-सिंहासन-विशेष। मीन और दर्पणका अर्थ स्पष्ट है। यहाँ दिखाया हुआ क्रम कल्पसूत्रके चित्रके अनुसार है। इन अष्टमंगलोका कम शास्त्रोमे विविध प्रकारसे प्राप्त होता है। यही कारण है कि मन्दिरो-तोरणी अथवा चित्रों में भी विविध क्रम देखने को मिलता है। पंचधातुकी चौकियाँ भी विविध कमवाली मिलती है। इसमें एक समान कमका निर्वाह हुआ ही नहीं है, किन्तु यहाँ दी गई पट्टी आगमशास्त्रोक्त पाठके अनुसार है और उन आगमोके नामका उल्लेख पट्टीके केन्द्रमे किया भी है। यदि इस पट्टीके क्रमको सभी स्वीकार करें तो सर्वत्र एक ही कमका आदर हो। प्रत्येक जैनके घरमें पृथक् पृथक् अथवा सामूहिक रूपमें इन अष्टमंगलोकी स्थापना (किसीभी रूपमें) करनी ही चाहिए। इन्हें प्रवेशद्वारमें तोरणके रूपमें अथवा द्वारशाख में कलात्मक पद्धतिसे उत्कीर्ण या चित्रित करके रखा जा सकता है। इससे उस स्थानक अथवा घरका मंगल होता है। अष्टमंगलकी आकृतियाँ अनेक प्रकारकी बनी हुई मिलती है। इसी पुस्तकमे उदाहरण स्वरूप अन्य दो पट्टियाँ दी गई है, उन्हें देखनेसे यह ज्ञात होगा। देशभेद और कालभेदके कारण वस्तु की रचनाओमें विविधता और अन्तर तो रहेगा ही, तथापि वे सभी आदरणीय है। ४.आचार्यजीका यह बारहवीं शती का गुजराती पद्धतिका चित्र है। यह चित्र एक काष्ठपट्टी पर चित्रित था, उसकी यह सुरम्य अनुकृति है। पट्टीमें नगर प्रवेश- शिष्य-परिवार के साथ खड़े हुए जैनाचार्य और सिद्धराज जयसिंहका मिलन, आकर्षक भगिमा-पूर्ण नृत्य तथा वृन्द-वादन होता हुआ दिखाया गया है। इस चित्र में प्राचीनकालमें पुरुष भी बालोका जूड़ा बांधते थे और बड़ी दाढी रखते थे, यह दिखाया गया है। और साथ ही उन सभीको कल्पसूत्रकी पद्धतिके अनुसार विशाल नेत्र, शुककी नासिकाके समान नुकीली नासिकाएँ, उस समय के जैन साधु, राजा एवं प्रजाजनोंकी वेशभूषा, दाहिने हाथसे प्रवचन मुद्रा बनाकर उपदेश करते हुए जैनाचार्य, दसवीं शतीसे लेकर सत्रहवीं शतीके जैनमुनियों के चित्र तथा गुरुमूर्तियोंके कुछ पाषाण-शिल्पोंमें दिखाई देनेवाली (बायें पर नहीं) दाहिने कन्धे पर वस्त्र रखनेकी तत्कालीन एक प्रथा आदि दृष्टिगोचर होते है। ५.विविध लिपियाँ इस पट्टीके चार कोष्ठकोंमें चार प्रकारकी लिपियाँ दी गई है। और पाँचवें कोष्ठकमें ऊपर की लिपियोंके शेष अक्षर, जैन लिपिके संयुक्ताक्षर और अंक - देवनागरी, जैन अथवा बालबोध लिपिमें लिखे जानेवाले अंक, शब्दों वाक्योंमें आनेवाले चिहन संकेत आदि प्रकीर्ण बाते दिखाई गई है। लिपि अर्थात् अक्षर अथवा अंकोंको अमुक प्रकारसे स्थापित करने लिखनेकी पद्धति, अथवा भाषाके लिए अमुक प्रकारसे लिखे जानेवाले वर्ण, अक्षर या उनका समूह है। वर्णके पर्याय अक्षर या मातृका है। लिपिके वर्णमातृका, सिद्धान्तमातृका, सिद्धमातृका ये नामान्तर है। इसके अतिरिक्त यह वर्णमाला, अक्षरमाला या मूलाक्षर इन नामोंसे भी प्रचलित है। मातृका अर्थात् माता। ये वर्ण शास्त्रसिद्धांत , विद्या, कला और यावत् विश्वके सभी व्यवहारोको जन्म देनेवाले तथा पोषण आदि करनेवाले होनेसे उसे माताकी उपमा दी है, यह यथार्थ ही है। इसीलिए उसे सिद्धान्तमातृका कहा है। वर्णोका कोई आदि अथवा उत्पत्ति नहीं है अतः उन्हें 'अनादिसंसिद्ध' भी कहते है। चित्रपट्टीके सम्बन्धमें पाँच कोष्ठकोंमें से पहले कोष्ठकमें वर्तमान कालमें प्रचलित देवनागरी लिपि दिखाई गई है। दूसरे में जैन देवनागरी, तीसरे खरोष्ठी और चौयेमें बाड्मी है। जैन इतिहास अथवा लिपिशास्त्रोके इतिहासकी दृष्टिसे देखें तो पट्टीमें ब्राह्मी,"खरोष्ठी, देवनागरी और जैन इस कमसे इनका लेखन होना चाहिए, किन्तु नीचे दी गई अपरिचित लिपियोंके अक्षरोंको पहचाननेका कार्य सरल बने इस दृष्टिसे सर्व परिचित देवनागरीको प्रथम बताया गया है। अन्यथा वास्तविक रूपसे परिवर्तन समझनेके लिए कोष्ठकोंका कम ४, ३, २, १ ऐसा ध्यान रखना चाहिए। प्रथम कोष्ठकमें जहाँ जो अक्षर है उनके नीचे उन्हींके वर्ण दिये है जैसे कि अ के नीचे सभी लिपियोंका अ। जिससे सैंकड़ों वर्षों में लिप्यक्षरों में हुए क्रमिक परिवर्तनका भी ज्ञान हो सके। पहले कोष्ठककी देवनागरी और बावन अक्षरोकी गणना आधुनिक देवनागरीका मूल नाम 'नागर' अथवा 'नागरी है। उत्तरकालमें देवशब्द जोड़कर देवनागरी' ऐसा नामकरण किया गया है। यही नागरी आजकल"बालबोध के रूपमे पहचानी जाती है। इसके अक्षरोकी संख्या बावन है। अ से तक १४ स्वर, क से ह तक ३३ व्यंजन, स्वरादिके ऊपर लगाई जानेवाली अनुस्वार - दर्शक एक बिन्दु (अ), दो बिन्दुरूप विसर्ग ७. किन्तु एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि एक पद्धति को बनाए रखने के लिए भले ही कोई एक निर्णय किया जाए, किन्तु उसका अर्थ यह नहीं करना चाहिए कि अन्य ग्रयोंमे जो सामान्य परिवर्तनवाला क्रम बताया है वह अशुद्ध है। उसे वैकल्पिक रूपमे आदरणीय ही मानना चाहिए। ८.जैन साधुओंमे आज तो बायें कन्धे पर कम्बल रखनेकी प्रथा चल रही है। ९. "लिखिताशरविन्यासे लिपिलिबिरूमी" अमरकोश-१४९९, ऐसा ही निर्देश हमकोशके श्लोक 1-१४८ में है। लिपिको कर्मग्रन्थ की भाषामे 'सज्ञाक्षर' और भाषाको 'व्यंजनाक्षर' तथा पुनः इन दोनों को 'द्रव्याक्षर' कहा जाता है। तथा अक्षरज्ञानके बोधरूप लब्याक्षर को 'भाषाक्षर' कहते है। (देखिए आवश्यक ग्रन्थ की मूल टीका) १०. एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा और लिपि ये दोनो अलग अलग वस्तुएँ है। जिसका उच्चारण होता है वह 'भाषा' और जो लिखी जाती है वह है लिपि'। किसी भी भाषाको किसी भी लिपिमें लिखा जा सकता है और किसी भी लिपिका अनुबाद किसी भी भाषामे किया जा सकता है। १. एक वर्ण-अक्षरको भी लिपि, मातृका अथवा मातृकाक्षर कह सकते है। १२. कतिपय लिपि-विशारद खरोष्ठीको ऐतिहासिक दृष्टि से ब्राह्मी से पूर्ववत्ती मानते है। १३ हिन्दी लिपि प्रायः बालबोध के समान है। १४ 'व्यंजनानि त्रयस्त्रिंशत् स्वराज्यैव चतुर्दशा अनुस्वारा विसर्गाश्च जितामूलीय एव च।१।। गजकुम्भाकृतिवर्णों प्रोक्तौ उनुनासिकस्तथा। एते वर्णा द्विपञ्चाशद् मातृकायामुदाहृताः ॥२॥ १५. औदन्ता स्वराः। (सि. है) १६-१६. अनुस्वार, विसर्ग आदि आकृतियाँ अनक्षरी होते हुए भी उनमे अर्थसंकेत होने के कारण उन्हें वर्णीमें गिनकर वर्णमाला में स्थान दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelio१५prg

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