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प्रथा प्राचीनकालमें उत्तम रूपसे प्रचलित थी। उत्तरकालमें लोगोंको इस प्रकार प्रतिदिन आकार बनाने में अनुकूलता नहीं प्रतीत हुई अतः सरलता लाने तथा समयकी बचत करनेकी दृष्टिसे उसमें परिवर्तन करके अष्टमंगलके आठो आकारोंको बाजोठ अथवा पटिये पर तराशने की प्रथा आरंभ हुई। उपासक गृहस्थ उस आकारोंवाले तराशे गए भागमे सरलता और शीघ्रतासे अक्षत भरकर आकृतियोंको बना लेता. इसलिए यह पद्धति पूर्व-पद्धतिसे सबको प्रिय लगी। बादमे यह पद्धति भी अनुकुल नहीं हुई, तब आलेखन बंद होनेसे प्रस्तुत पद्धति लुप्त होने लगी। श्री संघने सोचा कि इससे तो लोग मंगलाकारोंसे मिलनेवाले मंगल लाभको खो बैठेगे अतः अंतमें उन्होंने उभरी हुई आकृतियोंसे युक्त अष्टमंगलकी धातुमयी चौकियाँ जिनालयोंमें रखनेकी प्रथा आरंभ करवाई। इतना ही नहीं, 'स्नात्र' बोलनेके लिए पंचधातुकी मूर्तिके साथ अष्टमंगलकी चौकी होनी ही चाहिए ऐसा आग्रहपूर्वक नित्यकर्म विधिमें इसका समावेश किया, इसलिए यह सदाके लिए आवश्यकता की वस्तु बन गई। इस कारण प्रत्येक जैनमंदिरमें एक या एकसे अधिक संख्यामे वह सर्वत्र होती ही है। और नैमित्तिक कर्ममें अर्थात् सत्तरहभेदी पूजामे अष्टमंगल के लिए खास पूजा ही बना दी। इससे उस पूजाके समय तथा अन्य छोटे-बड़े शान्तिस्नात्रादि-प्रसंगों पर होनेवाले पाटली पूजनमें नवग्रहादिकी पूजा के प्रसंग में सेवन की लकड़ीसे बनाई हुई अष्टमंगलकी चौकी का विधान किये जाने के कारण उसकी अनिवार्यता बन
गई।
इस चौकीमें बनी हुई आकृतियाँ पूजा करनेके लिए नहीं है अपितु जो आकृति जिस रूपमें बनी हुई है उसी तरह की आकृति बनानेकी दृष्टिसे अनामिका अंगुली को घिसे हुए चन्दनमें डुबोकर उसके द्वारा उस पर वैसा ही आकार (आउट लाइन) बनानेके लिए है। किन्तु आज वास्तविक स्थितिका ज्ञान न होनेसे सभी चन्दनकी टपकियाँ, टीके आदि लगाकर संतोष मनाते है, लेकिन यह उचित नहीं है।
अष्टमंगलोंका आलेखन अथवा रचना करके मुझे शुभ मंगलोंकी प्राप्ति हो ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए। इससे जीवन में विविध प्रकारके मंगलोंकी प्राप्ति होती है।
मेरू पर्वत पर तीर्थकरोका अभिषेक हो जाने के पश्चात् इन्द महाराज चांदीके बने हुए अक्षतों-चावलसे साक्षात् प्रभुके समक्ष बहुमूल्य चौकी पर अष्टमंगलोंका आलेखन करते है। और सम्यग्दृष्टि देव देवलोकमें प्रभुकी पूजा के समय प्रतिदिन इनका आलेखन करते है। मगधेश्वर श्रेणिक तो प्रतिदिन नये-नये सुवर्णके 'जौ (यव) बनाकर उनसे अष्टमंगलोंकी रचना करते थे। अगवानीमें दीक्षा अथवा रथयात्राके चलसमारोहों (जलस) में सबसे आगे प्रथम अष्टमंगल रहते थे और उन्हें पुरूष लेकर चलते थे। अष्टमगलोंके ये आकार किन कारणोंसे मांगलिक है? इसका विवेचन मेरे पढ़ने में नहीं आया है। मात्र अष्टमंगल का उल्लेख राजप्रश्नीय (रायपसेणी), जाताधर्म कथा (णाया धम्मकहा) आदि आगम ग्रन्योंमें मिलता है तथा वहाँ सूर्याभदेवके प्रसंगमें लिखा है कि सूर्याभने भगवान के समक्ष जो नृत्य किये थे उनमें अन्तिम नृत्य अष्टमंगलके एक-एक आकारके अनुरूप ही किया था। और देवलोकके विमानों की द्वारशाख उपर ये आकार अनादिकालसे विद्यमान है। समवसरणमें स्थित अशोकवृक्ष पर तथा उसके द्वारों पर भी अष्टमंगल होते है।
हमारे यहाँ पुराने काष्ठके, संघके अथवा व्यक्तिगत प्राचीन मंदिरों तथा पुरानी जैन हवेलियोंके द्वार पर लगे हुए लकडीके चौखटो पर अष्टमंगल उत्कीर्ण किये जाते थे वे आज भी दिखाई देते है।
आज अधिकांश जैन मंदिरोंके गर्भगृहके द्वार पर चौखटोंके उपरी भागमें चांदीके बनाए हुए अष्टमंगलके तोरण लटकानेकी प्रथा बहुत ही प्रचलित है।
इसके अतिरिक्त, आजकल डिबियों, मंजूषाओं, मंदिरके चावलके भंडारों, व्याख्यानकी चौकियों, ओघेके पाटो, कुकुमपत्रिकाओं, चंदोवेके तोरणों, चित्रों, रंगोलियों तथा रेखाओं आदि में अष्टमंगलोंको व्यापक स्थान दिया जाता है।
कतिपय जिनालयोंमे तो स्वस्तिक और नन्द्यावर्तके आकारोंको बैठनेकी तथा चलनेकी जमीन पर लगी हुई संगमरमर की सिलपट्टियों (टाइलों) में भी बनाया जाता है।
अष्टमंगल के क्रममें पहला स्थान स्वस्तिक-साथियेका है जिसे लाखों जैन मंदिरोंमें आलिखित करते है। दूसरा श्रीवत्स का है। श्रीवत्स शब्द यहाँ रुढार्थक समझना चाहिए। इसलिए श्रीवत्स अर्थात् महापुरुषोंकी छातीके अन्तभागका उन्नत अवयव विशेष। तीर्थकरादि महापुरुषोंकी छातीके अन्तभागका केन्द्रीय शारीरिक प्रदेश बालसे कुछ उन्नत होता है। तथा उस पर ऊर्ध्वमुखी दक्षिणावर्तवाला सुकोमल केशोका समूह सुन्दर रूपसे शोभित होता है। केशयुक्त इस उन्नत अवयव विशेष का नाम ही श्रीवत्स है कि यह चिह्न समस्त अरिहंत-तीर्थकरोंके वक्षःस्थल पर होता है और इसलिए उनकी प्रतिमाओमें भी यह चिह्न बनाया जाता है। मंदिरोकी सभी प्रतिमाओंमें वक्षःस्थल पर यह चिह्न' उभरा हुआ रहता है।
तीसरा स्थान 'नन्द्यावर्त'का है। जैनधर्ममें यह एक प्रसिद्ध बृहत् स्वस्तिक ही है तथा नौ कोणोंसे निर्मित होनेवाली एक बुद्धिगम्य सुंदर आकृति है। चौथे 'वर्धमानक' का अर्थ 'शराब' अर्थात् दीपका साधन और इसीसे इसका सुपरिचित नाम 'शराव-सम्पुट' है। इसे 'वर्धमानसम्पुट' भी कहते है। शराव अथवा वर्धमानसे जिसमें दीपक करते है वह मिट्टीका साधन और सम्पुटका अर्थ है दो साधनका जुड़ाव । इन सबका तात्पर्यार्थ यह है कि सीधे साधन के ऊपर उलटा साधन रखनेसे संपुट जैसी आकृति बनती है। ऐसी आकृतिको मंगल माना गया है। पाँचवाँ 'कलश' अर्थात् किसी भी एक
३. श्रीवत्समे श्री और वत्म शब्द है। बत्सका अर्थ है छाती। श्री शब्दके अनेक अमेसे शोभा और रचना ऐसे दो अयोकी संगति को तो 'शोभा अथवा रचनासे युक्त ऐसा वनस्थल' इस प्रकार पौगिक अर्थ होता है। तो यह शोभा-रचना किसकी? तो ऊपर बताए अनुसार 'अवयव या वस्तु विशेष की', इस प्रकार अर्थ पटित होता है। ४ महान कहे जानेवाले अन्य व्यक्तियोंमें श्रीकृष्ण वासुदेव के वक्षमाग का 'श्रीवत्स' चिहन प्रसिद्ध है। ५. इसके उल्लेख के लिए देखें - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, औप,सम., महानि, आदि आगमा ६. विगत ४०-५० वर्षामे स्थापित मूर्तियोमे श्रीवत्सका चिहन बहुत ऊँचा, चौडा और मापके निश्चित आकारसे रहित किया गया है, जिसके फलस्वरूप मूर्तिकी शोभामे बति हुई है। अतः यह थिन यथायोग्य रूपमे ही बनवाना चाहिए। श्रीवत्स का आकार चित्र में किस प्रकार का किस तरह बनाना चाहिए? इस सम्बन्ध में प्राचीन चित्र आदिमें विविध प्रकार मिलनेके कारण एक पद्धति निश्चित नहीं हो सकी है। सभी भिन्न-भिन्न रूपमे चित्रित करते है।
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