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तासा
cusssSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS ०चित्रपट्टियाँ तथा प्रतीक चित्रोकर परिचय
प्रथम ८० चित्रपहियोकर परिचय BARANG
TARAFORGATOAREA तीसरी आवृत्ति
लेखक - मुनियनोविजय (वर्तमानमें आचार्य यशोदेवतरिजी) चित्रसंपुटकी यह तीसरी आवृत्ति है। प्रथम दो आवृत्तियोंमें पट्टियों तथा प्रतीकोंका जो परिचय छपा गया था, उसमें अतिअल्प सुधार तथा वृद्धि करके फिरसे लिखकर यहाँ छपा गया है। पहली आवृत्तिमें पट्टियाँ ३५, प्रतीक १०५, दूसरी में पट्टियाँ ६० तथा प्रतीक
१४१ थे। तीसरीमें चित्रपट्टियाँ ८० और प्रतीक १४४ और साइडमें ३५ से ज्यादा प्रतीक दिये हैं। अवतरण
इस ग्रन्थमें प्रत्येक रंगीन चित्रके सामने उसका परिचय तीनों भाषाओंमें एक एक पन्नेमें छपा है। इस तरह परिचयके कुल ४८ पन्नें है। प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे विविध विषयोंकी एक एक चित्रपट्टी छपी है। तदुपरांत प्रत्येक पृष्ठ पर इस तीसरी आवृत्तिमें छपे हुए गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी परिचयके प्रारंभमें ढाई सेन्टीमीटर की (१ इंच की) चौड़ाईवाला प्रतीक समचतुष्कोणमें दिया गया है। कुल मिलाकर परिचय पृष्ठोंकी पट्टियाँ ८० हैं और प्रतीक १४४ से अधिक हैं। अधिकतम चित्रपट्टियाँ तथा प्रतीक जैनधर्म या उसकी संस्कृतिके साथ सम्बन्ध रखते है, फिर भी सर्वसामान्य विषयकी भी चित्रपट्टियाँ तथा प्रतीक अल्प संख्या प्रस्तुत किये गये हैं।
इन दोनों प्रकारकी चित्राकृतियोंमें धर्म तथा संस्कृतिके अलावा तत्त्वज्ञान, साधना, उपासना, मंत्र, तंत्र, साहित्य, संगीत, शिल्प. स्थापत्य विविध कलाएँ आदि विषयोंका समावेश किया गया है।
यहाँ जो परिचय दिया गया है वह सिर्फ विद्वानों तथा उच्चतम अभ्यासियोंको ही नहीं लेकिन मुख्यतया सर्व-साधारणको खयालमें रखकर लिखा गया है। अतः दार्शनिकता या उसकी सूक्ष्म खूबियोंको यहाँ स्थान नहीं मिल पाया। इसके अलावा अमुक पट्टियाँ या प्रतीकोको छोड़कर शेष रेखांकनोंके आवश्यक पहलुओंका सरल भाषामें यथोचित वर्णन दिया गया है।
-तीन भाषाओंवाले परिचय पृष्ठोंके नीचे छपी हुइ ४८ चित्रपट्टियोंका परिचय. १. धर्मचकबंदना- यह धर्मचक्रकी पट्टी है। यह धर्मचक्र हरएक तीर्थकरके धर्मचक्रीत्वको ख्यात करनेवाला, प्रतिपक्षियोंके मदको मात करनेवाला तथा सूर्यसे भी अधिक
तेजस्वी होता है। यह विहार करते हुए तीर्थकरके आगे जगमगाहट करता हुआ, आकाशमें गमन करता है। देव समवसरणमें प्रमुकी बैठकके सामने ही सुवर्णकमल पर उसकी रचना करते हैं। वह समवसरण के दरवाजे पर भी होता है। साथ ही वह धर्म का प्रकाश करनेवाला, उसकी प्रबल सताको सूचित करनेवाला तथा उसका प्रेरक प्रतीक है। व्यवहारमें सर्वप्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन अरबों वर्ष पहले श्री ऋषभदेव भगवानके विहार कालमें तक्षशिलामे (पशावर प्रदेश) भगवानके ही पुत्र बाहुबलीजीने किया था। 'तपावली' ग्रन्थमें धर्मचक्रका तप करनेका भी विधान है, लेकिन हम उसे लगभग भूल गये है। अतः धर्मचक्रका आधप्रवर्तन करनेवाले जैन है यह बात जैनोंके मन पर न रही तो फिर दूसरोको तो इसका ख्याल ही कैसे हो? आज तो बौद्धोंके ढाई हजार वर्ष पहले शुरू हुए धर्मचक्रका भारत सरकारसे गौरव किये जानेसे वह सविशेष प्रसिद्ध हुआ है।
यहाँ चित्रमें धर्मचक्र सिर्फ दर्शनीय ही नहीं किन्तु सबके लिए बंदनीय भी है इसका भाव प्रदर्शित करने के लिए चतुर्विध श्रीसंघ धर्मचक्रको भावपूर्वक वंदन करता हुआ बताया है। दोनों ओर बैठे मृगोंको जैनशिल्प ग्रन्थमें सत्त्व तथा करुणाके प्रतीक स्वरूप बताये गये है।
धर्मचक्रके आरे सातसे लेकर चौबीस (२४) की संख्याके बीचकी विविध संख्यावाले देखनेमें आए है। मूर्तियोंमें धर्मचक्र सम्मुख तथा आडे (अर्थात् हमारे सामने चक्र पर संविधान पट्टी ही दिखाई दे और आरे दोनों ओर रहे) दोनों प्रकार के किये जाते थे। बहुत प्राचीन कालमें आडेका
ठीक ठीक प्रचार था। आज तो (प्रायः) सम्मुखवाले प्रकार की प्रणालिका है। २. ऊँ ह्री- जैन परंपरा के अनुसार देवनागरी लिपिमें लिखे गये औं तथा ही किस तरह चित्रित किये जाने चाहिए इसका खयाल रखनेके लिए यह पट्टी दी गई है।
लघु या बृहत् शांतिस्नात्रके विधि प्रसंग पर मिट्टीकी बेदी-पीठिका बनाई जाती है। तब उस पर इन दोनों मंत्रबीजोंका आलेखन करना पड़ता है। साथ ही ये बीज लगभग सर्वधर्म प्रसिद्ध है। मंत्रों, यंत्रों, जप तथा ध्यान आदिमें इनका व्यापक उपयोग होता है। जैन 'औं' में पंचपरमेष्ठी की तथा 'ही
में चौबीस तीर्थकर की कल्पना करते है। औं और ह्रीं के बारेमें उनकी महिमाके तथा साधनाके ग्रन्थ, मन्त्र कल्प लिखे गये है। ३. अष्ट मंगल- अनादि कालसे विश्वमे मंगलरूप मानी गई आठ आकृतियोंकी यह पट्टी है। यह पट्टी सचित्र कल्पसूत्र (बारसा) में चित्रित अष्टमंगलके
चित्रोंसे प्रतिकृति के रुपमे ली गई है। इस पट्टीमे क्रमशः (१) स्वस्तिक (२) श्रीवत्स (३) नंद्यावर्त (४) वर्षमानक (५) भद्रासन (सिंहासन) (६) कलश (घटाकृति) (७) मीनयुगल और (८) दर्पण - ये आकृतियाँ आलिखित है। शास्त्रोक्त आदेशानुसार हर एक श्रावकको जिन मंदिरमें भगवानकी पूजा करनेके बाद मंडपमें बैठकर चैत्यवंदनके प्रारंभ के पहले जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमाके सम्मुख हमेशा शुद्ध और अखण्ड अक्षतों-चावलोंसे इन आठों आकृतियोंकी रचना करनी चाहिए। लेकिन आज यह प्रथा प्रायः बंद हो चुकी है। इसके स्थान पर आज सिर्फ पाटले पर चावलका स्वस्तिक बनाना,बादमे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के प्रतीक स्वरूप अक्षतोकी तीन ढेरियाँ करना, इसके ऊपर सिद्धशिला के चन्दाकार करना और उसके बीच चावलकी छोटी ढेरी बनाना इस तरह की प्रथा है। इस प्रथामेसे सिर्फ आध मंगलाकृति 'स्वस्तिक' का आलेखन अवश्य होता रहा है। अनेक प्रसंगोंमें इसका आलेखन होता है यह आनंद की बात है।
वर्तमानकालमें छोटे-बड़े हजारों जैन स्त्री-पुरुष हमेशा मंदिरमें जाकर काष्ठके पाटले पर अपने घरके शुद्ध चावलों द्वारा इस स्वस्तिककी रचना करते है। अष्टमंगल की इन आकृतियों का प्रभुके समक्ष सामान्यतया चावलों से आलेखन करना होता है। प्राचीन कालमें तो जैन राजा और श्रीमन्त लोग सोने और चांदी के अक्षत बनवाकर उनके द्वारा मंगल आकृतियों की रचना करते थे। चाहे किसी भी माध्यमसे हो यह आकार बनानेकी १. शास्वमे धर्मचक'को हजार आरोवाला दरशाया है। २. इसके लिए पञ्चमी या अष्टमीके चंद्र जैसी आकृति बनाई जाती है। •जिन मंदिरोंकी फों पर सालोंसे शिल्लियों द्वारा पत्थरसे स्वस्तिक या नंद्यावर्तका आलेखन होता आया है। इस पर लोग पैर रखेंगे, सब ठगे क्या यह उचित है? यह प्रथा कबसे शुरू हुई? किसने शुरू की? यह सोचने की बात है।
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