________________
हुए साधुओं को अपने स्थल पर सावधानी से ले आया। वह सत्युग का मानव था। उसके हृदय में साधु-सन्तों के प्रति अत्यधिक मान-भक्ति थी अतएव साधुओं को उचित स्थान पर बिठाया। साधुओं के साथ कुछ वार्तालाप करके स्वयं को मिक्षा का लाभ देने के लिए निवेदन करते हुए कहा कि 'आप मुझे कुछ लाभ दीजिए, फिर भोजन करूँगा और तदनन्तर धर्म के दो शब्द आपके मुख से सुनकर आपको ठीक मार्ग पर चढा दूंगा"। असीम आनन्द से युक्त नयसारने अत्यधिक भक्तिभाव के साथ साथओं को मिक्षा दान दिया। तत्पश्चात गरु महाराज ने असरकारक उपदेश दिया। बाद में नयसार ने स्वयं गुरू के साथ जाकर उन्हें सही मार्ग पर चढा दिया। मार्ग में चलते हुए गुरुजी ने उपदेश दिया। नयसार के जीवन में इस प्रकार का प्रसग सर्वप्रथम ही आया था, इसलिए वह खूब रसपूर्वक सुन रहा था। भावि काल के भगवान महावीर का जीव जो वर्तमान में नयसार के रूप में था, वह साधुओं को द्रव्यमार्ग दिखाता था जब कि साधु महात्मा उपदेशों के द्वारा नयसार को भावमार्ग-मोक्षमार्ग बता रहे थे। आत्मा योग्य थी अतएव उपदेश के प्रभाव से उसके मोह के आवरण दूर हट गये। अमृत-वचनों के फलस्वरूप उसकी आत्मा में केवलज्ञान के अंश के समान सम्यग्दर्शन का दिव्य प्रकाश उत्पन्न हुआ और इसी प्रकाश के प्रभाव से २७ वे भव में भगवान महावीर बनने का पुण्य एकत्रित होना प्रारम्भ हो गया।
नयसार मरकर दूसरे भव में देवलोक में उत्पन्न हुआ। (उपर्युक्त जो वर्णन किया गया है, उसे चित्र की प्रथम पंक्ति में चित्र द्वारा दर्शाया गया है।)
तृतीय भव : देवलोक का आयुष्य पूर्ण होने पर देवत्व को प्राप्त नयसार के जीवन इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव'-आदिनाथ प्रभु के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती जैसे कि यहाँ मरीचिरूप से जन्म लेने पर भी सम्यग्दर्शन का जो बीज बो दिया गया था, उसके प्रताप से संसार की भौतिक सुख-साम्रगी उसे संसार के बन्धन में जकड़ने में समर्थ न हो सकी। तीर्थकर हुए अषभदेव प्रभु के उत्तम उपदेश सुनकर वैराग्य प्राप्त होने पर मरीचि ने भागवती दीक्षा ग्रहण कर उनका शिष्यत्व स्वीकार किया, उनको साधु जीवन की ग्रहण और आसेवन की शिक्षा देने के लिये स्थविर साधु को सौंपा गया। (देखो चित्र विभाग-२)
एक समय विहार करते हुए, नंगे पैरों से चलते हए मनि मरीचि ग्रीष्म की तीव्र गरमी और तृषा का परिषह सहन न कर सके। पसीना पसीना होने से अत्यधिक परेशान हो गये। चारित्र मोहनीय नामक कर्म ने छलांग मारी। 'मुझसे अतिशय दुष्कर संयम का भार अब थाहासा भी सहन हो सके वैसा नहीं है। अब मुझे क्या करना चाहिए?' इस प्रकार पतनोन्मुखी विचारों के भीतर उलझ गये। एक समय काया की माया को त्यागकर मुनि होनेवाला शूरवीर आत्मा आज कायरता की शरण में जा बैठा। 'मन टूटा उसका सब कुछ टूटा' इस उक्ति के अनुसार मन निर्मल विचारों के पूर्ण वशीभूत हो गया, और मुनि मरीचि पुनः काया की माया में लिपट गये। घर वापिस जाने का तो मन नहीं था, परन्तु आचार से पतित होकर शुद्ध साधु के वेशमे भी कैसे रहा जाय? इसलिए तीन मनोमन्थन के अन्त में निर्णय किया कि 'कुछ साधु के जैसा दिखाई दूं वैसी वेशभूषा धारण करूँ और शरीर को कष्ट न हो तथा मन की अभिलाषा भी पूर्ण हो सके, वैसे ही नियमों को ग्रहण करूँ।' इस प्रकार वह गेरूए वस्त्र धारण करनेवाला त्रिदण्डी संन्यासी बना। नियमों के अन्तर्गत छाता रखना, जूते पहनना, सचित्तजल का उपयोग करना, परिग्रह रखना, लोच न करना इत्यादि स्वीकार किया। (देखो चित्र विभाग-३)
मरीचि ग्यारह अंगरुप आगमशास्त्रों के ज्ञाता थे। इसलिये मरीचि जो कि आचार से पतित हुए थे परन्तु अभी तक उस सम्यक् प्रकाश का प्रभाव आत्मा में विद्यमान था, इसलिये श्रद्धा से पतित नहीं हुए थे, अतः उपदेश तो सभी को सत्यमार्ग का ही- शुद्ध श्रमण धर्म का ही देते थे और जिस-जिसको प्रतिबोध होता, उन सबसे कहते कि 'सत्य धर्ममार्ग भगवान श्रीऋषभदेव के पास है, अतः वहाँ जाकर दीक्षा ग्रहण करें। सभी वहाँ जाते और श्रमण मार्ग को स्वीकार करते। यह बात तो यहीं तक रही।
एक समय ऐसा हुआ कि सर्वज्ञ भगवान श्रीऋषभदेव को भरत चक्रवर्ती ने प्रश्न किया कि 'भगवान ! आपके संघ में कोई भावि तीर्थंकर का जीव है क्या उस समय भगवान ने कहा कि "तेरा ही पुत्र मरीचि जो हमारे संघ में आचार से शिथिल हुआ परिव्राजक के वेष में रहता है, वही इस चौबीसी में (वर्धमान-महावीर नामका) अन्तिम तीर्थंकर होगा, इतना ही नहीं अपितु त्रिपृष्ठ नाम के प्रथम वासुदेव और महाविदेह की मूकानगरी में तुम्हारे जैसे ही प्रियमित्र नामके चक्रवर्ती भी होगा। मेरा पुत्र तीन-तीन विशिष्ट पदविओं को प्राप्त करेगा, यह जानकर किस
पिता को आनन्द न होगा? चक्रवर्ती भरत तो प्रभु को बन्दना कर के शीघ्र मरीचि के पास पहुँचे, वहाँ जाकर मरीचि को स्पष्ट कहा कि मैं तुम्हारे त्रिदण्डी वेश को नमस्कार नहीं करता हूँ परन्तु तुम चौबीसवे तीर्थकर होनेवाले हो यह जानकर तुम्हें नमस्कार करता हूँ। और यह कहा कि प्रथम वासुदेव और महाविदेह में प्रियमित्र चक्रवर्ती भी तुम होंगे। यह सुनकर मरीचि को सहसा कुलाभिमान जाग्रत हुआ। सिर पर छाता, पैरों में खड़ाऊ, और गेरुआ वस्त्र धारण करनेवाले ऐसे मरीचि बार-बार अहकार के अहमाव के साथ खुश होने लगे, परन्तु इतने से ही उनका आनन्द सीमित न हुआ अतएव बहुत हर्षित होकर नाचने-कूदने लगे और कहने लगे कि 'अहा ! मरा कुल कसा उत्तम ! अरे! इस युग में प्रथम तीर्थकर वह मेरे दादाजी, प्रथम चक्रवर्ती वह मेरे पिता और पहला ही वासुदेव मैं ! मरीचि के त्रिकरण योग अभिमान के शिखर पर पहुँच गये और उसी समय उन्होंने नीच गोत्र में जन्म लेने का विपरीत निम्नकोटि का नीच गोत्रकर्म बाँध लिया। शास्त्रकार कहते है- "प्राप्त सम्पत्ति, विद्या अथवा शक्ति का कभी अभिमान नहीं करना चाहिये, परंतु फलयुक्त झुके हुए वृक्ष के समान अधिक से अधिक विनम होना चाहिये, अन्यथा भवान्तर में वर्तमान में प्राप्त हुई स्थिति से विपरीत स्थिति को प्राप्त करोंगे।"
यहाँ चित्र के तृतीय विभाग में मरीचि को नाचते हुए दिखाया गया है। कुलाभिमान किसका किया और उसका फल क्या मिला? उसका स्पष्टीकरण ऊपर की ओर गोलाकाररूप में दिखाये गये चार छोटे चित्रों द्वारा किया गया है।
तृतीय भाग में बीच में देवलोकसूचक विमान और नीचे नरकसूचक राक्षसीमुख दिखाया गया है और विमान के दोनों तरफ पत्राकृति में पन्द्रह भवों तक एकान्तर हुए बाहूमण त्रिदण्डी के भवो को सख्यांक देकर बताया गया है। देव के भवों के लिये बार-बार विमानों को न बताते हुए बीच में देवसहित एक ही विमान दिखाकर उसके नीचे जो भब देवलोक का प्राप्त किया उसके अक और नरक के प्रतीक नीचे दो भव के अंक दिये गये है। नीच गोत्र कर्मबन्ध के कारण भावि भगवान की आत्मा को जब जब मनुष्य भव प्राप्त हुआ तब तब याचकप्रधान वृत्ति के कारण जिसकी गणना अच्छे कुलों में नहीं होती थी ऐसे कुछ जो बाह्मण कुल थे उनमें उत्पन्न होती रही। और वहाँ त्रिदण्डी - संन्यास ग्रहण करने पड़े। एकत्रित किये अशुभ गोत्र कर्म को असंख्य काल तक भोगने पर भी शेष रह गया जो कर्म (क्षत्रिय कुल में तीर्थंकरों का उत्पन्न होना अनिवार्य होने पर भी) अन्तिम वर्धमान-महावीर के भव में भी उदित हुआ और भगवान को देवानन्दा बाह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न होकर वहाँ ८२ दिन तक रहना पड़ा। उसके बाद इन्दने देव द्वारा गर्भापहरण कराकर शुभ माने जानेवाले क्षत्रियकुल में जन्म हो, उसके लिये भगवान को त्रिशला क्षत्राणी की कुक्षि में स्थापित किया। (देखो-चित्र सं. ५) कभी अन्धकार तो कभी प्रकाश, मानव जीवन में आँख मिचौनीका सा कैसा खेल खेलता है, इसकी प्रेरक-विचारधारा मरीचि के भव से मिलती है। कुसंस्कारों का प्रवाह कितने दीर्घकाल तक बहता रहता है, यह जानकर वैसे कुसंस्कारो से सौ कोस दूर रहना चाहिए, यही इस प्रसंग की शिक्षा
इसके बाद ऐसा हुआ कि मरीचि बीमार हुए। असंयमी और मिथ्यावेषी संन्यासी की सेवा सच्चे संयमी साघु द्वारा कैसे हो सकती है? इसलिये अपने द्वारा प्रतिबोधित अनेक मुनियों में से भी जब किसी ने सेवा-चाकरी नहीं की तब उन्हें शिष्य की अपेक्षा हुई। मन ही मन निर्णय किया कि मैं स्वस्थ होउँगा तब शिष्य बनाऊँगा। वे ठीक हुए और शुद्ध धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी अवस्था में उनके पास राजकूमार कपिल आया और मरीचि ने उसे श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। तब उसने सामने प्रश्न किया कि 'आप दूसरे को कहते है, तो स्वंय सच्चे श्रमणधर्म का पालन क्यों नहीं करते?' मरीचि ने उत्तर दिया कि 'उस धर्म का पालन करने में मैं असमर्थ हूँ।' इस पर कपिल ने पुनः प्रश्न किया कि यह तो बताइये कि 'आप इस समय जिस धर्म का अनुसरण कर रहे है, क्या उसमें धर्म नहीं है?' मरीचि को लगा कि यह भी मेरे जैसा ही जड़ मिला है। मरीचि संकोच में पड़ गये। शिष्य की लालसा होने से यह भी शंका थी कि मैं सत्य उत्तर हूँ और यह दीक्षा न ले तो? अगर प्रभाव कम होता हो तो ऐसा भी क्यों कहा जाय? दर्शन मोह और मिथ्यात्व मोह कर्म के उदय से सहसा श्रद्धा से पतित हुए, यहाँ पर सत्य श्रद्धा की ज्योति बुझ गई। मरीचि ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि -“कविला इत्थं 5 पि, इहयं 5 पि" कपिल, वहाँ (प्रभु के पास) भी धर्म है और यहाँ भी धर्म है। अन्त में कपिल को शिष्य बनाया। स्वयं के मार्ग में सत्य धर्म न होने पर भी असत्य भाषण किया, इसके द्वारा दीर्घ ससार-चक्र भ्रमण का नवीन कर्म बाँध लिया। (देखो भाग-३) मरीचि किये हुए पाप का प्रायश्चित्त किये बिना मरकर पाँचवे देवलोक में उत्पन्न हुए। भय सोलहवाँः पन्द्रहवे देवभव से चयकर-मरकर महावीर की आत्माने राजगृह नगर के विश्वनन्दी राजा के भाई विशाखाभूति के पुत्ररूप में जन्म लिया। उसका विश्वभूति नाम रखा गया। विश्वनन्दी राजा थे और विशाखानन्दी युवराज पुत्र थे। अन्तिम सोलहवे भव में भिक्षावृत्ति प्रधान ब्राह्मणकुल के संस्कारों का बल कुछ क्षीण होने पर भगवान के जीव ने क्षत्रिय जैसे उच्चकुल में जन्म लिया। विश्वभूति युवावस्था को प्राप्त होते है, तब वह अपनी रानियों के साथ राजगृह के प्रसिद्ध उद्यान में आमोद-प्रमोद करने जाते है। वहाँ प्रणयक्रीडा में मग्न हुए विश्वभूति को
३ ऋषभदेव मात्र जैनों द्वारा ही स्वीकृत भगवान है वैसा नहीं है। वे अजैनों के भी देव थे।
उनके २४ अवतारों में 'ऋषभावतार' के रूप से अषभ को स्थान मिला है। 'भागवत पुराण' में उनका विस्तृत जीवन प्रत्येक वर्ष लाखों अजैनों-हिन्दुवर्ग द्वारा सुना जाता है, और भागवतकार ने तो इस अवतार को सर्वोत्तम अवतार बताकर उसकी महती प्रशंसा की है। इसके अतिरिक्त वेद तथा अन्य पुराणादि ग्रन्थों के अन्तर्गत अषभ व वृषभ नाम के अनेक उल्लेख मिलते है।
७०
in Education Intemational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org