Book Title: Tirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Jain Sanskruti Kalakendra

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Page 143
________________ नवनवाDEle 6 भगवान श्री महावीर के २६ पूर्वभयों के •० तथा ४८ चित्रोंका आवश्यक परिचय लेखकः मुनि यशोविजय peeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee . हिन्दी भाषा भूमिकाः इस चित्रसम्पुट के अन्तर्गत भगवान श्री महावीर के जीवन से सम्बद्ध जो चित्र दिये गये हैं, उन चित्रों के विषय में कुछ विशेष जानकारी और उन्हींकी विशेषताओं को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। और तीसरा चित्र जो भगवान के २५ भवों से सम्बन्धित है, उसका भी आवश्यक परिचय यहाँ दे रहा हूँ। इसका ज्ञान-जानकारी प्रेरणादायक एवं रसप्रद होगा। इस परिचय से एक समय की सामान्य व्यक्ति जब सत्ताईसवें भव में तीर्थकर परमात्मा होती है तब उसके गत जन्म की परिस्थितियाँ और साधना कैसी थी? उसकी किञ्चित् झाँकी प्राप्त होगी। २६ भवों की कथा का अवतरण समस्त परिचय चैतन्य स्वरूपी आत्मा और जडस्वरूप कर्म-शत्रुओं के बीच खेले गये दीर्घकालीन संग्राम में मानव-स्वभाव और उसके आचरण के विविध पहलुओं का दर्शन, कर्मसत्ता की वैविध्य पूर्ण विचित्रता और उसका असाधारण सामर्थ्य, इन्द्रियों के विषम विषय और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का शिकार बनती आत्मा की होनेवाली दुर्दशा एवं अधोगति, बीच बीच में प्राप्त होनेवाले शुभ संयोग तथा उससे सर्जित होनेवाले उन्नति अवनति के आरोह अवरोह, अन्त समय में प्राणिमात्र को सच्चे सुख की प्राप्ति कराने हेतु उत्पन्न हुई दया-भावना के कारण की गई प्रखर आध्यात्मिक, साधना, उसके फल स्वरूप पगदण्डी से निकल कर राजमार्ग पर होनेवाला उनका पदार्पण, अनुकूल संयोगों की प्राप्ति होने पर सर्वशक्तिमान आत्मा के द्वारा अपनी जानादि अनन्त शक्तियों को प्राप्त करने में अवरोधक बने कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के लिये प्रदर्शित की गयी अपनी शक्ति का परिचय, व प्रारम्भ किये गये दिव्य पुरुषार्थ के अन्त में परमात्मस्वरूप अन्तिम सिद्धि को प्राप्त हुई ज्वलन्त विजय आदि प्रसंगों पर बहुत कुछ विशिष्ट प्रकाश डालेगा। चित्र-१: सुवर्णकमल के आसन पर पचासन में विराजमान तीर्थकर भगवान श्री महावीर की स्वर्ण रंग की मनोहर मूर्ति। कमल के भीतर सिंह का चिन्ह स्थापित किया गया है और नीचे के हिस्से में स्वर्णनिर्मित लघु कमलासन (जिसे 'पादपीठ' कहते है) स्थापित है। भगवान उच्च आसन से उतरते समय प्रथम पादपीठ पर चरण रखते है। पुनः उपदेश देते समय भी उसी पादपीठ पर दोनों चरण रखते हैं। यह पादपीठ देवों द्वारा विरचित समवसरण में अवश्य रहता चित्र-२: चित्रसंपुटकी पूर्व दो आवृत्तियों में अरिहंत का एक ऐसा चित्र बनाना रह गया था जिसमें अष्ट महापातिहायाँका सुन्दर चित्रांकन हो। इसी कारण यह भव्य-आकर्षक चित्र चित्रित कराया गया है। यों तो यह चित्र आदीश्वर प्रभुका है पर इस ढंगसे बनाया गया है कि अन्य किसी भी तीर्थकर के लिए उपयोगी बन सकता है। सिर्फ लांछन एक अन्य कागज पर चित्रित कर उसे समुचित स्थान पर रखना होगा। अनानुपूर्वी बनानी हो अथवा किसी तीर्थकर देवकी सामूहिक आराधना करानी हो तब संघ समक्ष स्थापन करनेके लिए ऐसे भव्य चित्रकी आवश्यकता रहती है। यों तो यह चित्र २३ तीर्थकर के संपुट-प्रकाशन के लिए बनाया गया था। परन्तु न मालूम उसका प्रकाशन कब होगा? यह सोचकर भगवान महावीरकी इस तृतीयावृत्तिमे ही प्रकाशित करने का निर्णय लिया। इस चित्र कलाकार द्वारा मुझे बेहद मनपसन्द तीन छत्र, सिंहासन, इन्द्र इत्यादिका आकर्षक अंकन किया गया है। यह भव्य चित्र जैनसंघको पहली ही बार देखने को मिलता है। २५ भवों का परिचय चित्र-३: जैन धर्म के अनुसार कोई भी आत्मा अनादि से परमात्मा नहीं होता, अपितु वह हमारे सदृश ही लेकिन विशिष्ट कोटि का संसारी जीवात्मा होता है। पुनः जब सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के क्षायिक भाव (मानसिक परिणाम) से आराधना करता है, तभी वह परमात्मा हो सकता है। अनन्त काल व्यतीत हो गया और इसी अपेक्षा से परमात्मा भी अनन्त हो गये। इसके पश्चात् भी काल की गति अनन्त होगी परन्तु छह आरा (अर्थात् युग) की अपेक्षा से, व्यक्तियोंकी दृष्टि से चौबीस तीर्थंकरों की ही गणना होती है-न्यूनाधिक की नहीं। प्रत्येक तीर्थकर की आत्मा भिन्न-भिन्न होती है। यहाँ श्रमण भगवान महावीर की आत्मा भी अनादि काल से हमारे यहाँ औरों के सदृश ही कर्म के आवरणों से युक्त, अशुद्ध और चारों गतिओं में परिप्रमण करनेवाली, लेकिन विशिष्ट कोटि की संसारी-जीवात्मा ही थी, अतएव पूर्व अवतारों-भवों की गणना कैसे हो? तथापि उनके प्रधान २७ भवों की जो परिगणना उपस्थित की जाती है, वह आध्यात्मिक विकास का मुख्य प्रारम्भ अथवा मोक्ष मार्ग के प्रधान आधाररूप बोधिलाभ-सम्यग्दर्शन का प्रकाश जिस भव में प्रथम प्राप्त हुआ तदनुसार उस भव से उसकी गणना प्रारम्भ होती है। यह विकास अथवा प्रकाश 'नयसार" नामक अवतार भव में हुआ, जिससे उस अवतार को भगवान महावीर का प्रथम अवतार-भव माना जाने लगा। इस वरबोधि सम्यग दर्शन को ही परमात्म अवस्था की नीव अथवा मोक्षफल की प्राप्ति का बीज कहा है। तीसरे चित्र में भगवान के २५ अवतारों को संक्षेप में दिखाया गया है, इस पर से भली भाँति समम सकेगे कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनन्तर भी आत्मा यदि जागृत नहीं रहे तो विविध-गतियों के किस प्रकार आरोह-अवरोह आते है तथा मनुष्य के आत्मविकास में कैसी-कैसी उत्क्रान्ति और अपक्रान्तियों होती है। प्रथम भवः ग्राम का मुखिया नयसार लकड़ियाँ काटने के लिये बन में जाता है, वहाँ भोजन का समय होने पर किसी अतिथि को भोजन कराके ही भोजन करूँ, इस प्रकार भावनापूर्वक उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। इतने में दर से साधुओं के समान व्यक्तियों को आते हुए देखे, उसके हृदय में अपरिमित हर्ष हुआ। सामने जाकर प्रणाम किया। मार्ग को भूले हुए साधुओं के द्वारा नयसार को 'धर्मलाभ' शब्द द्वारा आशीर्वाद दिया गया। पश्चात् वह मार्ग भूले १. भगवान महावीर के २७ भवों की परिगणना में जो महत्त्वपूर्ण मत-मतान्तर उपस्थित है, उन्हें यहाँ निर्दिष्ट करता हूँ। आवश्यक नियुक्ति चूर्णि-वृत्ति, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, कल्पसूत्रों की टीकाएँ आदि ग्रन्थ, सत्ताइसवे-अन्तिम भव में देवानन्दा की कुक्षि में (जन्म के लिये) गर्भरूप में अवतरित होने का, और जन्म त्रिशला की कुक्षि से होने का निर्देश करते है। जब कि समवायांग सूत्र ग्रन्थ की वृत्ति एक विलक्षण विधान प्रस्तुत करते हुए २६ वे भव में देवानन्दा की कुक्षि से जन्म होने का और २७ वे भव में त्रिशला रानी की कुक्षि से जन्म • होने का निर्देश करते है। तथा आवश्यक-नियुक्ति-वृत्ति, त्रिषष्टि, तथा कल्पसूत्र की अनेक टीकाएँ बाईसवाँ भव मनुष्य का बतलाते है, परन्तु उसका जन्मस्थल, नाम, आयुष्यादि के विषय में वे ग्रन्थ सर्वथा मौन है। मात्र इतनी ध्वनि निकलती है कि इस मनुष्यभव में भगवानने तपश्चर्या के द्वारा (चक्रवर्ती के योग्य) शुभ-पुण्यों का उपार्जन किया था, इसलिए वहाँ से उन्होंने चक्रवर्ती के रूप में जन्म ग्रहण किया। परन्तु गुणभद्ररचित 'महावीर चरिय' के अन्तर्गत मानव जन्म की समाप्ति पर देवलोक में जन्म ग्रहण करने का उल्लेख है. जब कि समवायांगकारने तो बाईसवाँ (मानव रुप) भव ही अमान्य ठहराया है। - नन्दलाल वकील के द्वारा लिखित, मुदित 'महावीरचरित्र' में तो बाईसवाँ भब 'विमल राजकुमार' के रूप में मान्य है। •एक ही जन्म और दो भवों की गणना किस दृष्टि से होगी, यह विचारणीय है। ४ २७ भवों से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थसन्दर्भो पर दृष्टिपात करने पर भी 'विमल राजकुमार' के भव का उल्लेख कहीं भी नहीं मिला, जिससे शंका होती है कि उन्होंने किस आधार पर लिखा होगा? २. दिगम्बर ग्रन्थकार नयसार के स्थान पर पुरुरवा नामक मांसाहारी भील का उल्लेख करते है और उसने सागरमुनि के उपदेश से अहिंसक बनकर बोधि-सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था। तथा दिगम्बर परंपरा तेतीस भवों का उल्लेख करती है। ६९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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