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किा-१५: यह एक ही चित्र मैने इरादा पूर्वक किनारीदार (बोर्डरवाला) बनवाया है। भगवान की
आत्मा केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व प्यान, तप और चारित्र की कैसी पराकाष्ठा तक पहुँची है, उसकी सुन्दर कल्पना प्रस्तुत करती हुई जो जो उपमाएँ कल्पसूत्र के मूलपाठ में दी है (जिसे मैं सारे कल्पसूत्र का भगवान की महान् आत्मा का यथार्थ-हदयंगम परिचय करानेवाले हृदय के समान महत्त्व का भाग समझता हूँ) उन उपमाओं को इस किनारी के अन्तर्गत चित्रों द्वारा चित्रित किया गया है। चित्र की किनारी में अपनी बॉई ओर चित्रित प्रथम सूर्य, उसके बाद क्रमशः कछुआ इत्यादि १८ उपमा चित्रों को दिखाया गया है। उसका परिचय इस प्रकार है :(१) भगवान द्रव्य से शरीर की कान्ति से और भावना से ज्ञान के द्वारा सूर्य जैसे देदीप्यमान, (२) कछुओ के समान अपनी इन्द्रियों को गुप्त रखनेवाले, (३) पानी में जैसे शंख गीला नहीं होता वैसे ही भगवान रागादि दोषों से लिप्त न होनेवाले है, (४) एक सींगवाले भारतीय 'गेंडा'" की तरह भगवान कर्म-शत्रुओं के सामने अकेले ही लड़नेवाले. (५) चन्द्रमा के समान सौम्य-शान्त स्वभाववाले, (६)आकाश जिस प्रकार निरालम्ब है, उसी प्रकार भगवान किसी के भी आधार-सहाय की अपेक्षा रहित, (७) जल से लिप्त न होनेवाले कमल के जैसे कर्मलेप से अलिप्त, (८) पक्षियों के समान मुक्त-विहार करनेवाले,(९) वायु के समान अप्रतिबद्ध रूप से विहार करनेवाले, (१०) वृषभ के समान महावतादि का भार बहन करने में समर्थ, (११) हर्ष-विषाद के प्रसंगों में भी सम-स्थिर स्वभावयुक्त होने के कारण सागर के समान गम्भीर, (१२) परिषहादि रुप पशुओं से अजेय होने से सिंह के समान दुर्घर्ष, (१३)उपसर्गरूपी हवा के द्वारा चलायमान न होने से मेरु की तरह अचल, (१४) कर्मरूपी शत्रुओं के सामने वीर होने से गज के समान पराक्रमी,(१५) शुद्ध-सुवर्ण जिस प्रकार तेजस्वी होता है, उसी प्रकार भगवान कर्म-मल से रहित होने से सुशोभित,(१६) जिसका उदर और शरीर एक, मस्तक दो
और पाँव तीन होते है ऐसा भारण्ड नाम का पक्षी प्राचीन काल में इस देश में था, ऐसा उल्लेख मिलता है। आकाश में जाने के लिये उसका वाहनरूप में भी उपयोग होता था। दोनों शरीरों की बनावट ऐसी थी कि जुड़े हुए शरीरवाला होने पर भी मस्तक अलग अलग होता। इन दोनों को समान इच्छाये ही होती, परन्तु भिन्न-भिन्न फल खाने की इच्छा हो तब दोनों की मृत्यु उपस्थित हो जाती। ऐसा न हो, उसके लिये वे अप्रमत्त भाव से खूब जागृत रहते है। ऐसे भारण्ड पक्षी के समान साधना में भगवान अप्रमत्त भाव से रहनेवाले, (१७) शरदऋतु के निर्मल जल के समान कलुषित भावनाओं से अकलंकित होने से शुद्ध हृदयवाले और (१८) वसुन्धरा-पृथ्वी जिस प्रकार शीतोष्णादि समस्त भारों को समानभाव से सहन करती है उसी प्रकार भगवान पृथ्वी की तरह सभी कष्टों को समान-भाव से सहन करने वाले है।
भगवान इस प्रकार की श्रेष्ठ उपमाओं के योग्य थे। चित्र-१६: एक खेत में पहुँचकर, देहावस्था को संकुचित करके. उसे संयमित बनाकर, मन को
ध्यान की पराकाष्टा तक ले जाकर, शालवृक्ष के नीचे रहकर, गोदोहिकाआसन द्वारा (या उकडू-आसन)सायंकाल केवलज्ञान प्राप्त करते हुए प्यान-मग्न भगवान को दिखाया गया है। पास में ऋजुवालुका नदी और पूमता हुआ ज्ञान प्रकाश सूचक बर्तुलाकार प्रभामण्डल दिखाया ।
गया है। चित्र-३७: यह चित्र 'समवसरण' १२ अथवा लोकभाषा में 'समोसरणका या प्रवचनसमापीठ का है।
महावीर अब भावतीर्थ अर्थात् साक्षात् परमात्मा की अवस्था तक पहुँचे जाने के कारण, उनके महान् पुण्यों के प्रकर्ष से, देवगण भक्ति के निमित्त, भगवान के प्रवचन देने के हेतु व्याख्यानपीठ के रूप में (चित्र में दिखाये गये के अनुसार) एक योजन प्रमाण वाले 'समोसरण' की तीन भागों में रचना करते है। उस प्रत्येक भाग को 'गढ' शब्द के नाम से जाना जाता है। प्रथम, द्वितीय और तृतीयः इस प्रकार समोसरण तीन गढ़वाला होता है। प्रत्येक विभाग की बैठक के चारों ओर गढ़-किला होने के कारण, वह गढ़रूप से जाना जाता है। इस गढ़ की रचना करने से पहले देव जमीन के ऊपर पीठिका (चबूतरा) बनाते है, फिर उस पर देवता अपनी दैविक-वैक्रियक शक्ति से देखते ही देखते इन गढ़ों की रचना कर देते है। उसमें प्रथम गढ चाँदी का रचकर उस पर कंगरे सोने के बनाते, दूसरा गढ सोने का बनाकर उसके कंगरे रत्न के बनाते, और तीसरा गढ़ जवाहरात याने विविध रंगों के रत्नों से जडित बनाकर कंगरे चकचकित विविधमणि के बनाते हैं। देखनेवाला देखते ही मुग्ध हो जाय, और सहसा समोसरण में जाने का मन हो, ऐसी मनोहर उसकी रचना होती है। प्रथम गढ़ में
प्रवचन सभा में जो लोग वाहन लेकर आये हों, वे अपने वाहनों को प्रथम गठ की चौडाईवाले माग में रखते है, (यह चित्र में स्पष्ट दिखाई देता है। दूसरे गढ की चौड़ाई में तिबंध पशुपक्षीगण जिन्हे भगवान की वाणी का आकर्षण कर्ण से हुआ हो. वे आकर बैठते है। तृतीय गढ़ में जिसके नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ उस शालवृक्ष नामक चैत्यवृक्ष सहित अशोकवृक्ष-जो कि समोसरण जितना ही लम्बा-चौड़ा होता है, उसके नीचे भगवान के बैठने के लिये देवगण सिंहासन और उसके आगे चरण रखने हेतु छोटा पादपीठ रचते है, और उसके साथ ही साथ (१) अशोकवृक्ष, (२) देवों द्वारा सुगन्धित पुष्पों की दृष्टि (३) दिव्य प्वनि (४) दो चामरों का हुलाना (५) भव्य-सिंहासन (६) मस्तक के पीछे महातेजस्वी आमा मण्डल (आभा-प्रकाश) (७) दुन्दुभि" अर्थात् वाणी का पुरक बननेवाले नगाडे का तालबद्ध स्वर (८) तीन छत्र, इन अष्ट प्रातिहार्यों की रचना देवगण भगवान के सिंहासन पर बैठने से पहले से ही करते है। भगवान समोसरण के पूर्व द्वार से प्रवेश करके, तृतीय गढ़ में पहुंचकर चैत्यवृक्ष" सहित अशोकवृक्ष की प्रदक्षिणा कर, फिर तीर्थ को नमस्कार कर सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठते है, उसी समय देवता तुरत ही तीनों दिशाओं के सिंहासन पर भगवान के जैसे ही तीन प्रतिबिम्बों (कृत्रिम, परन्तु मानो साक्षात् जीवित हो ऐसे) का सर्जन कर देते है। इस कारण से भगवान चतर्मुख हो जाते है। वैसे वास्तविक रूप से वे चतुर्मुखवाले नहीं होते। इसके पश्चात् इन्द्रादिक देव, केबली, गणघर इत्यादि मुनिगण, सावियाँ, देवांगनाएँ, मनुष्यों में नर और नारियों के वृन्द आदि अपनी-अपनी मर्यादा के अनुकूल, अपनी अपनी नियत दिशा में स्थान ग्रहण करके, दोनों हाथ जोड़ कर बैठते है या तो खडे रहते है। भगवान चतुर्मुख होने से प्रत्येक दिशा में बैठे हुए लोगों को भगवान मुझे ही कह रहे है ऐसा लगता है। इससे उनकी भावना वृद्धि बनी रहती है। पूर्वोक्त सभा के समक्ष भगवान मालकोश राग के स्वर में, सिर्फ अर्धमागधी भाषा में ही, अतिमपुर, अमृतमय प्रवचन सुबह के प्रथम प्रहर अर्थात् तीन घण्टे तक देते है और सभी शान्ति से सुनते है। दूसरे गढ़ में परस्पर विरोधी पशु-पक्षी भी पास-पास में बैठे होने पर भी भगवान के पुण्य प्रभाव से अपने वैर-विरोध को भूल जाते है। उपदेश के बाद भगवान दूसरे गढ़ में (चित्र में देखें) श्वेतरंग का कमरा बनाया है-जिसे शास्त्रीय शब्दों में "देवच्छंद' कहा जाता है। वहाँ विश्रान्ति करने तथा आहार-जल आदि लेने आते है। उसके बाद दूसरी बारका उपदेश गणधर भगवन्त सिंहासन के आगे देवों द्वारा रचित पादपीठ के ऊपर बैठकर देते है। उसके पश्चात् फिर भगवान दूसरी बार अन्तिम प्रहर के तीन घण्टे का उपदेश देते है. हजारों व्यक्ति शान्ति-स्थिरता से सुनते हैं और वचनातिशय के प्रभावसे अपनी-अपनी भाषा में सब समझते है। भगवान के अतिशयों के प्रभाव से किसी को न तो थकान होती है, और न तो उठने का ही विचार होता है। तीनों ही गढ़ के दरवाजों में देवगण व्यवस्था के लिये पहरेदारों का कार्य करते है। चारों दिशाओं में बड़े-बड़े प्वज फहराते है। पीने के लिये पानी की बावड़ियाँ भी होती है। चित्र में
नीचे प्रवचन सुनने आये हुए राजा श्रेणिक की सवारी दिखाई गई है। चित्र-1८: चित्र नं. ३८,३९, ४१, ४२, ४३, ४५ आदि के चित्र प्रसंग जनताको प्रथम बार देखनेका सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।
भगवान महावीरका जीवन इतना विराट् है कि इस संपुट में ४८ चित्र प्रस्तुत करने पर भी दूसरे तीस-चालीस चित्र-प्रसंग ओर तैयार किये जा सकते है।
१३. दुन्दुभि से तात्पर्य देवालय में बजाई जानेवाली नगाड़ों की जोड़ी समझना। १४. कितने ही लोग चैत्यवृक्ष और अशोकवृक्ष दोनों एक ही है, ऐसा समझते है, परन्तु ऐसा
समझना ठीक नहीं है। अशोक यह एक वृक्ष का ही स्वतन्त्र नाम है, जब कि 'चैत्य' यह वृक्ष का नाम नहीं है। दोनों वस्तुएँ भिन्न है। अतएव चैत्यवृक्ष से चैत्य का एक अर्थ ज्ञान होने से यहाँ 'ज्ञानवृक्ष' अर्थ ग्रहण करने का है। जिस वृक्ष के नीचे रहकर तीर्थंकरों को केवलज्ञान प्रकटित हो उस वृक्ष को 'चैत्यवृक्ष' नाम से जाना जाता है और इसी कारण प्रत्येक तीर्थकर का अपना-अपना अलग अलग चैत्यवृक्ष अर्थात् ज्ञानवृक्ष होता है। 'अशोक' तो अष्ट महा प्रातिहार्यों के अन्तर्गत समाविष्ट होने के कारण वह तो प्रत्येक तीर्थकर के लिये अवश्य होता ही है, जब कि चैत्य अथवा ज्ञानवृक्ष एक ही प्रकार का नहीं होता। बल्कि भिन्न-भिन्न प्रकार के होते है. और जब-जब तीर्थकर के समवसरण की रचना होती है, तब-तब देव चैत्य अथवा ज्ञानवृक्ष का आदर करने के लिये उसे अलग से अशोकवृक्ष की चोटी पर रचते है।
इससे एक ओर बात निश्चित होती है कि तीर्थकरों को केवलज्ञान बन-उद्यान जैसे क्षेत्र में किसी वृक्ष के नीचे ही प्राप्त होता है और उससे वह वृक्ष भी वन्दनीय, पूजनीय
और प्रतिष्ठा का पात्र बनता है। चैत्यवृक्ष को "बोधिवृक्ष' भी कहते है। यहाँ 'बोधि' शब्द
केवलज्ञान का वाचक है। बौद्धों ने अर्थान्तर में 'बोधि' शब्द को विशेषकरके प्रधानता दी है। १५. दिगम्बर ग्रन्थकार चतुर्मुख की मान्यता का स्वीकार नहीं करते, उनकी समवसरण की
रचना भी श्वेताम्बर से बहुत भिन्न है।
११. आफ्रिका में दो सगवाले गेडे होते है। यह एक ध्यान में रखनेकी बात है। १२. केवल ज्ञान-त्रिकालज्ञान होने के साथ साथ भगवान सातिशय ज्ञानी हो जाते है। देव
भगवान के प्रवचन के लिए निश्चित समवसरण (समोसरण) की भव्य रचना करते है। यह चित्र आद्य समोसरण का नहीं समझना, किन्तु अन्य दिन का बना हुआ समझना। सचमुच तो तीर्थकर देव के समोसरण कैसे होते है? यही ख्याल कराने की दृष्टि से यह बताया गया है।
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