Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
भावार्थ-धर्म द्रव्य में गति का हेतुपना है, अधर्म में स्थति का हेतुपना है, आकाश में अवगाह का निमित्त कारणपना है और पुद्गल में रूप, रस, आदि गुण विद्यमान हैं एतत्-स्वरूप अजीवन नाम का भाव धर्म चारों अजीव द्रव्यों का लक्षण है।
त्रिकालविषयाजीवनानुभवनादजीव इति निरुक्तव्यभिचारान्न पुनर्जीवनाभावमात्र तस्य प्रमाणागोचरत्वात् पदार्थलक्षणत्वायोगात् भावांतरस्वभावस्यैवाभावस्य व्यवस्थापनात् । काया इव कायाः प्रदेशवाहुल्यात् कालाणुवदणुमात्रत्वाभावात् । ततो विशिष्टाः पंचैवास्तिकाया इति वचनात् ।
भूत, वर्तमान, भविष्य, तीनों कालों में गतिहेतुत्व आदि अजीवन धर्मों का अनुभवन करने से अजीवतत्व है। इस अजीव शब्द की निरुक्ति का कोई व्यभिचार दोष नहीं पाता है, अतः निरुक्ति द्वारा ही निर्दोष लक्षण बन गया होने से सूत्रकार ने अजीव तत्व का स्वतंत्र सूत्र द्वारा कोई लक्षण नहीं कहा है । अजीव शब्द में नञ् शब्द तो सदृश को ग्रहण करने वाला पर्युदास है जो कि अनक्षर, प्रनंग, अनेकांत, अनुपम, अंग आदि के समान भाव--प्रात्मक पदार्थ है । तुच्छ हो रहा केवल जीवन का अभाव तो फिर अजीव नहीं है क्योंकि वह तुच्छ-प्रभाव किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है, खरविषाण के समान तच्छ अभाव किसी भी पदार्थ का लक्षण नहीं हो सकता है। जैसे "भत भावः यहां घट से अतिरिक्त भूतल पदार्थ जैसे घटाभाव अभीष्ट किया गया है, उसी प्रकार अधिकरण स्वरूप अन्य भाव का स्वभाव हो रहे ही प्रभाव पदार्थ की व्यवस्था की गयी है । भावार्थ-वैशेषिकों ने
। पदार्थ तुच्छ प्रभाव स्वीकार किया है उनके यहां जीव का तुच्छ-अभाव अजीव समझा जाता है किन्तु जैनों के यहां गति-हेतुत्व आदि अनेक गुणों से युक्त हो रहे जीव भिन्न पदार्थ अजीव माने गये हैं । जीव से भिन्न हो रहे किन्तु सत्त्व, द्रव्यत्व आदि धर्मों करके जीव के सदृश पदार्थ हैं। "अजीव कायाः' यहां जो काय शब्द का प्रयोग किया गया है उसमें इव शब्द का उपमा अर्थ छिपा हुआ है जिस प्रकार जीवों के शरीर पुद्गलों के पिण्ड-स्वरूप एकत्रित हो जाते हैं उसी प्रकार अनादि-कालीन धर्मादिकों के प्रदेशों की बहुलता का तदात्मक एकत्रीभाव हो जाने से ये चार पदार्थ शरीरों के समान काय हैं, कालाणुओं के समान ये चार तत्व केवल एक-प्रदेशी अणुस्वरूप नहीं हैं। सिद्धान्त ग्रन्थों में ऐसा वचन है कि तिस कारण से अनेक प्रदेशों से विशिष्ट हो रहे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और आकाश ये पांच ही अस्तिकाय हैं, एक प्रदेश के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों से रहित होने के कारण कालाणु द्रव्य अस्तिकाय नहीं है।
अजीवाश्च ते कायाश्चेति समानाधिकरणवृत्तिसामर्थ्यादवसीयते, भिन्नाधिकरणायां वृत्तौ कथांचिद्भेदविवक्षायामपि कायानामेव संप्रत्ययप्रसंगात् अजीवानां विशेषणभावात सामानाधिकरण्यायामपि वृत्तौ दोषोयमिति चेन, अभेदप्रतीतेः। अजीवा एव काया इति धर्मादीनामजीवत्वकायत्वाभ्यां तादात्म्यप्राधान्ये तयोः सामानाधिकरण्योपपत्तेः।।
"अजीवकायाः" इस शब्द की अजीव हो रहे सन्ते जो काय हैं, इस प्रकार दोनों पदों के वाच्यार्थ के समान अधिकरण को बता रही कर्मधारय समास-वृत्ति हो रही है, यह विना कहेही शब्द और अर्थ की सामर्थ्य से जान ली जाती है । “समर्थः पदविधि:' पद-सम्बन्धी विधियां सामर्थ्य के