Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक जीव तत्व का व्याख्यान कर चुकने पर उसके अव्यवहित पीछे अजीव तत्त्व का व्याख्यान करना उचित पड जाता ही है। उस अजीव तत्व में सामान्य लक्षण, विभेद. विशेषलक्षण, इन में अनेक प्रवादियों के नाना विवादों के उपस्थित होने पर उनकी निवृत्तिके लिये इस सूत्र की प्रवृत्ति होना घटित होजाता ही है । अन्यथा यानी-सूत्रकार इस सूत्रको नहीं कह पाते तो शंकारहित होकर अजीवतत्व की व्यवस्था नहीं हो सकती थी।
अजीवनादजीवाः स्युरिति सा न्यिलक्षणं । कायाः प्रदेशबाहुल्यादिति कालाद्विशिष्टता ॥२॥ धर्मादिशब्दतो बोध्यो विभागो भेदलक्षणः । तेन नैकं प्रधानादिरूपता नाप्यनंशता ॥३॥ निःशेषाणामजीवानामिति सिद्धं प्रतीतितः ।
विपक्षे बाधसद्भावाद् दृष्टेनेष्टेन च स्वयम् ॥४॥ प्राणधारण या चेतनास्वरूप जीवन नहीं होने से धर्म आदिक द्रव्य अजीव होजाते हैं इस प्रकार पांचों द्रव्यों में व्यापनेवाला अजीव का सामान्यलक्षण निरुक्तिद्वारा कहदिया गया है। प्रदेशों की बहलता करके चारों पदार्थ काय हैं इसकारण काल द्रव्य से विलक्षणता आजाती है अर्थात् काल द्रव्य जीवन से रहित होरहा अजीव तो है किन्तु अनेक प्रदेशी नहीं है अतः अजीव होते हुए काय बन रहे ये चार पदार्थ ही हैं । धर्म आदि चार शब्दों की निरुक्ति से ही भिन्न भिन्न लक्षण वाला विभाग समझ लिया जाय तिस कारण सर्व ग्रजीवोंको एक ही प्रकृति या शब्दब्रह्म या चित्राद्वत आदि स्वरूपपना नहीं है और वह अजीवतत्व अंशों से भी रीता नहीं है अर्थात्-धरति, न धरति, प्राकाशन्ते अस्मिन. पुरणगलने यस्य, इन निरुक्ति--पूर्वक अर्थों से इनका लक्षण न्यारा न्यारा सांश होजाता है । सांख्यों ने जैसे एक ही जड़ प्रकृति को मान रक्खा है वैसा हमारे यहां अजीवतत्व नहीं है अथवा बौद्ध जैसे निरंश स्वलक्षणों को स्वीकार कर बैठे हैं वैसा हमारा जीव द्रव्य नहीं है किन्तु अनेक प्रदेशों करके सांश है। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त स्वभाव विद्यमान हैं, इस प्रकार सम्पूर्ण जीव द्रव्यों के लक्षण आदिक सर्व प्रतीतियों द्वारा सिद्ध हो जाते हैं । इसके विपरीत विपक्ष में दृष्ट प्रमाण और इष्ट प्रमाण करके स्वयमेव वाधानों का सद्भाव है, अत:उमास्वामी महाराज का उक्त सूत्र निर्दोष सार्थक, आवश्यक, व्यावृत्तिकारक, और अज्ञात प्रमेय का ज्ञापक है ।
जीवस्योपयोगी लक्षणं जीवन मितिप्रतिपादितं ततोन्यदजीवनं गतिस्थित्यवगाइहेतुत्वरूपादिस्वरूपमन्वयिसाधारणमजीवानां लक्षणं ।
उक्त तीन वात्तिकों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है कि जीव का लक्षण उपयोग है यही जीवन है । मूल सूत्रकार स्वयं दूसरे अध्याय में इसका प्रतिपादन कर चुके हैं। उस जीवन से न्यारा पदार्थ पर्युदासवृत्ति द्वारा अजीवन है, जो कि गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, रूप रसादि स्वरूप हो रहा और अत्वय-रूप से लक्ष्यों में प्रोत पोत वर्त रहा मजीवों का साधारण लक्षण है।