Book Title: Swatantravachanamrutam Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 9
________________ meenam मा प्रत्यय 11/rp;ammmmoon. स्पत्तावनाJJATE त्याल्या का परिचारा भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने आत्मविद्या, तत्त्वविद्या आदि शब्दों का प्रयोग बहुतायतरूप से किया है । आत्मविद्या और तत्त्वविद्या के पर्यायवाची शब्द के रूप में दर्शन शब्द प्रचलित हुआ । दृश् धातु से बने हुए दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टिकोण है । इसे चाष अनुभति, कहने में कोई बाधक कारण नहीं है । वस्तु अनेक धर्मात्मक है । प्रत्येक दृष्टा ने अपने अनुभूति । को तर्कणा के मुख से प्रचारित किया । सत्य की खोज का यह प्रामाणिक प्रयत्न है । अन्धविश्वास के साथ संघर्ष के लिए दर्शनशास्त्र अत्यावश्यक होता है । विचारों को जागृत करने और बुद्धि को सूक्ष्म । चिन्तनशील बनाने में दर्शनशास्त्रों का महत्वपूर्ण योगदान है । । फिर भी एक समस्या है कि प्रत्येक दर्शन अपनी मान्यताओं को सत्य मानकर अपनी विचारधारा को प्रस्तुत करता है । एक ही। विषय पर मत-मतान्तरों को पाकर शिष्यों के समक्ष एक अन्यमनस्कता: की स्थिति का निर्माण होता है । उनको तत्त्वबोध कराने के लिए जैन ! दार्शनिक आचार्यों ने दर्शनशास्त्र के अनेक ग्रन्यों की रचना की । परमत का रमण्डन करके सम्यग्मार्ग का प्रदर्शन करना ही इनकी । रचना का मुख्य उद्देश्य है । धर्म के मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व मान्यताओं का परिमार्जन करना अत्यन्त आवश्यक है । जबतक मान्यतायें परिशुद्ध नहीं होगी, तबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है है । अतः सम्यग्दर्शन की शुद्धि के लिए इन ग्रन्थों के स्वाध्याय की । ! बहुत आवश्यकता है । है भारत में जैनदर्शन के अतिरिक्त सांख्य, मीमांसक, बौद्ध और चार्वाक आदि अनेक दर्शन प्रचलित हैं । उन दर्शनों के व्दारा अनेक | सिद्धान्त स्थापित किये गये हैं । उनी सत्यासत्यता का आकलन । किये बिना तत्त्वों का सम्यम्बोध नहीं हो सकता । उसके अभाव में सम्यग्दर्शन कैसे होगा ? अतः तर्कप्रधान युग की इस धारा में इस मध्य का महत्व और अधिक बढ़ जाता है । दर्शनशास्त्र के अनुपम अन्यभण्डार में बिखरे हुएPage Navigation
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