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स्वतन्त्रतामृतम्
वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ पिच्छया मीदें। जो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ।।
(द्रव्यसंग्रह-७)
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अर्थात् निश्चय से जींद में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं है, इसलिये जीव अमूर्त है और बन्ध के कारण से व्यवहार की अपेक्षा करके जीव मूर्त है।
अस्तु, इस कारिका में अनेकान्त पद्धति से आत्मा का अपने गुणों के साथ भिन्नत्व और अभिन्नत्व सिद्ध किया गया है तथा आत्मा का अमूर्तिकत्व के प्रति अनेकान्त दर्शाया गया है । जातिशक्तेस्स चैतन्यैकः स स्यादनेकताम् । आप्नोति वृत्तिसद्भावैर्नाना ज्ञानात्मना ततः ।। १३ ।। अर्थ :
वह आत्मा चैतन्यजाति की शक्ति के कारण एक ही है परन्तु अनेक पदार्थो को जानने वाले वृत्ति से सम्पन्न ज्ञान वाला होने से आत्मा अनेकपने को प्राप्त हो जाता है ।
विशेषार्थ :
अन्यमतावलम्बी शिष्य प्रश्न कर रहा है कि एक और अनेक ये परस्पर विरोधि दो धर्म हैं । जो एक होगा, उसमें अनेकत्व का अभाव होगा और जो अनेक होगा, उसमें एकत्व नहीं पाया जा सकता । ऐसी स्थिति में जैनागम में निरूपित आत्मा का एकानेकत्व कैसे सिद्ध हो सकता है ?
आचार्यदेव उस नयानभिज्ञ शिष्य को सम्बोधित करते हैं कि चैतन्यजाति की अपेक्षा से आत्मा एक है परन्तु उस आत्मा में अनेक पदार्थों को जानने वाला ज्ञान विद्यमान है । उस ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा में अनेकत्व भी घटित हो जाता है ।
आचार्य श्री अकलंकदेव ने लिखा है
नानाज्ञानस्वभावत्वादेको ऽनेको ऽपि नैव सः ।