Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 32
________________ चेतनैकस्वभावत्वादेकानेकात्मको भवेत।। (स्वरूप सम्बोधन-६) 1 अर्थात् : - वह आत्मा अनेक प्रकार के ज्ञानस्वरूप होने से अनेक होते हुए भी है एक चेतना-स्वभाव होने से एक होता हुआ भी सर्वथा एक नहीं है। किन्तु एक है तथा अनेकात्मक होता है। इसतरह इस कारिका के व्दारा जीव का एकानेकत्व अनेकान्त पद्धति से सिद्ध किया गया है । क्षणकः स्वपर्यायैर्नित्यैः गुणैरक्षणिकस्तथा । शून्यः कर्मभिः आनन्दादशून्यः स मतः सताम् ।।१४।। अर्थ : आत्मा अपनी पर्यायों के कारण से अनित्य है तथा अपने । । स्थायी गुणों के कारण से नित्य है। आत्मा कर्मों से शून्य और ! आनन्दादि गुणों के कारण से अशून्य है ऐसा सज्जनों का मत है। विशेपार्थ : आत्मा नित्य है कि अनित्य है ? आत्मा शून्य है कि अशून्य है ? ऐसे परस्पर विरोधि दो प्रश्नों के उपस्थित होने पर आचार्यदेव नयविवक्षा के व्दारा उसका समाधान प्रस्तुत करते हैं । आत्मा अपने अनन्त स्वाभाविक गुणों से परिपूर्ण है । उन गुणों का आत्मा के है साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । उन गुणों की अपेक्षा से आत्मा नित्य है । आत्मा पर्यायरूप भी है । पर्याय क्षणध्वंसी होती है । अतः पर्यायों की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है । द्रव्य की नित्यता और अनित्यता को समझाते हुए आचार्य श्री। समन्तभद्र जी सुविधिनाथ भगवान की स्तुति करते समय लिखते हैं - नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेनित्यमन्यतातिपत्तिसिद्धेः। न तद्विरुद्धं बहिरन्तर निमित्त-नैमित्तिकयोगास्ते।।

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