Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 39
________________ H । Home-new-one-तम-meen-wesome नयप्रमाणभङ्गिभिः, सुस्थमेतन्मतं भवेत् । नया स्युः त्वंशगास्तत्र, प्रमाणे सकलार्थगे।।२१।। अर्थ : यह सब जय, प्रमाण और सप्तभंगी के व्दारा सुव्यवस्थित हो जाता है । प्रमाण सकलार्थग्राही होता है और नय प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गयो यस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाला होता है। विशेपार्थ : आत्मा को या संसार में विद्यमान सम्पूर्ण वस्तुओं को जानने के तीन उपाय हैं । 1:- प्रमाण ; पूर्ण वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है । 12:- नय : प्रमाण के व्दारा यहीत वस्तु को जो एक अंशरूप जाने, । उसे नय कहते हैं । 13:- सप्तभंगी : प्रश्नकर्ता के प्रश्नवशात् अनेकान्तस्वरूप वस्तु को सात प्रकार से प्रतिपादन करने की शैली सप्तभंगी कहलाती है। तु इन तीन साधनों के व्दारा वस्तु का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । भूताभूतनयो मुख्यो, द्रव्यपर्यायदेशनात् । तदेदा नैगमादयः स्युरन्तभेदस्तथापरे ।।२२।। अर्थ : द्रव्य और पर्याय की विवक्षा से नय मुख्यरूप से भूतार्थ और । अभूतार्थ इन दो भेदों वाला है । उसके ममादि भेद हैं और इनके । है अनेक अन्तर्भेद भी होते हैं । विशेपार्थ : नय शब्द जैनागम में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । यथा :1:- ज्ञाता (वक्ता) के अभिप्राय को नय कहते हैं । (आलापपद्धति)

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