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माध्यम से समझाया जा रहा है। सुवर्ण के साथ किट्टी कालिमा का संयोग अनादिकालीन है । उसीप्रकार जीव के साथ ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्मों का सम्बन्ध अनादिकालीन है । कुशल सुवर्णकार सुवर्ण को शुद्ध करने के लिए उसे अग्नि में झौंक देता है । अग्नि के द्वारा सुवर्ण की मलीनता नष्ट हो जाती है तथा वह शुद्ध हो जाता है । उसीप्रकार तप की अग्नि में तपकर आत्मा भी रागादि कलंकों का विनाश करके शुद्ध हो जाता है ।
बाह्यान्तरङ्गसामग्रे, परमात्मनि भावना ! योऽभ्युदेति आत्मनः तत् सम्यग्दर्शनं मतम् ॥
अर्थ :
बाह्याभ्यन्तर सामग्री के मिलने पर परमात्मा की जो भावना आत्मा में उत्पन्न होती है, उसे सम्यग्दर्शन जानो ।
विशेषार्थ :
आप्त, आगम और तपोधन के प्रति समीचीन श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के लिए बाह्य और आभ्यन्तर कारणों की आवश्यकता होती हैं । दर्शनमोहनीय कर्म और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम सम्यग्दर्शन का आभ्यन्तर कारण है । देशनालब्धि, काललब्धि और अन्य छह कारण (जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवर्द्धिदर्शन और वेदना) ये सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में बाह्य कारण होते हैं । इन दोनों प्रकार के कारणरूप सामग्री की सन्निधि प्राप्त हाने पर ही सम्यग्दर्शन प्रकट होता है ।
आचार्य श्री जिनसेन जी ने लिखा है
देशनाकाललध्यादि, बाह्यकारणसम्पदि । अन्तःकरणसामग्ग्रां, भय्यात्मा स्याद् विशुद्धदृक् ।।
(आदिपुराण :- ९/११६)
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