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Pomeraneeroenमस्वतनधारणामृतम
ग्रन्थकर्ता ने भी लिखा है कि निज को जानने के उपरान्त । परद्रव्य को प्रदीप के ज्योति की तरह जो प्रकाशित करता है उस 1 गुण को ज्ञान कहते हैं ।
तत्पर्यायस्थिरत्वं वा, स्वास्थ्यं वा चि सर्वावस्थासु माध्यस्थ्यं, तद्वृत्त अथवा स्मृतम् ।।३०।। अर्थ :
आत्मा का निज की पर्यायों में स्थिरत्व अथवा चित्तवृत्ति की। स्वस्थता अथवा सम्पूर्ण अवस्थाओं में माध्यस्थता को सम्यक्चारित्र। कहते हैं । विशेषार्थ :
इस कारिका में रत्नत्रय के तृतीय अंगस्वरूप सम्यक्चारित्र का निरूपण किया गया है । चर् गतिभकाणयोः थातु से इत्र प्रत्यय । लगकर चारित्र शब्द की निष्पत्ति होती है ।
चारित्र शब्द को परिभाषित करते हुए जैनाचार्यों ने कर्तृ -१ साधन, कर्म साधन और भायसाधन का सहयोग लिया है । आचार्यमहर्षि श्री पूज्यपाद जी ने लिखा है - धरति चर्यतेऽनेन धरणमा वा पारित्रम् ।
(सर्वार्थसिद्धि :- ११) अर्थात् :- जो आचरण करता है, जिसके व्दारा आचरण किया जाता है अथवा है। आचरण करना मात्र चारित्र है।
श्री विजयाचार्य जी चारित्र की परिभाषा यूँ करते हैं :चरति याति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारणं चेति चारित्रम् ।। चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रम् ।।
(भगवती आराधना की विजयोदया टीका) अर्थात् :- जिससे हित की प्राप्ति और अहित का परिहार होता है उसे चारित्र । कहते हैं । अथवा, सज्जन जिसका आचरण करते हैं उसे चारित्र कहते हैं । ।
इस कारिका में चारित्र की तीन परिभाषायें की गयी हैं ।