Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 51
________________ GABOGAD वे इसप्रकार हैं 1:- आत्मा का अपनी चैतन्यमयी परिणति में स्थिर हो जाना चारित्र ने लिखा है स्वतन्त्रचामृतम् इसी परिभाषा को पुष्ट करते हुए आचार्य श्री अमृतचन्द्र जी - स्वरूपे चरणं चारित्रम् । स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः । (प्रवचनसार :- ७ ) अर्थात् :- अपने स्वरूप में रमण करने का नाम चारित्र हैं । इसी का अर्थ स्वसम्यरूप परिणति करना है । 2:- चित्तवृत्ति की स्थिरता चारित्र है । लिखा हैं |३७ आचार्य श्री ब्रहादेव जी ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षप्रभृति समस्तापध्यानरूप मनोरयजनित संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकार परमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् । (बृहद् द्रव्यसंग्रह :- ४०) : अर्थात् देखे सुने और अनुभव किये हुए जो भोग उनमें वांछा करना आदि जो समस्त दुर्ध्यानरूप मनोरथ हैं उनसे उत्पन्न हुए संकल्प - विकल्पों के त्याग से उसी सुख मत में संतुष्ट तथा एक आकार का धारक जो परम समता भाव उससे चलायमान चित्त को पुनः पुनः स्थिर करना सम्यक्चारित्र है । 3:- सम्पूर्ण अवस्थाओं में माध्यस्थता को सम्यक्चारित्र कहते हैं । आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने लिखा है चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति पिदिहो । मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो || - (प्रवचनसार : ७) :- निश्चयतः चारित्र धर्म है तथा जो धर्म है, वह साम्य है ऐसा कहा गया अर्थात् हैं। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम ही साम्य है । 1 यह सम्यक्चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है । 40009 «Dagat spell-4062

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