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वे इसप्रकार हैं
1:- आत्मा का अपनी चैतन्यमयी परिणति में स्थिर हो जाना चारित्र
ने लिखा है
स्वतन्त्रचामृतम्
इसी परिभाषा को पुष्ट करते हुए आचार्य श्री अमृतचन्द्र जी
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स्वरूपे चरणं चारित्रम् । स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः ।
(प्रवचनसार :- ७ )
अर्थात् :- अपने स्वरूप में रमण करने का नाम चारित्र हैं । इसी का अर्थ स्वसम्यरूप परिणति करना है ।
2:- चित्तवृत्ति की स्थिरता चारित्र है ।
लिखा हैं
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आचार्य श्री ब्रहादेव जी ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए
दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षप्रभृति समस्तापध्यानरूप मनोरयजनित संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकार परमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् ।
(बृहद् द्रव्यसंग्रह :- ४०)
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अर्थात् देखे सुने और अनुभव किये हुए जो भोग उनमें वांछा करना आदि जो समस्त दुर्ध्यानरूप मनोरथ हैं उनसे उत्पन्न हुए संकल्प - विकल्पों के त्याग से उसी सुख मत में संतुष्ट तथा एक आकार का धारक जो परम समता भाव उससे चलायमान चित्त को पुनः पुनः स्थिर करना सम्यक्चारित्र है ।
3:- सम्पूर्ण अवस्थाओं में माध्यस्थता को सम्यक्चारित्र कहते हैं । आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने लिखा है
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति पिदिहो । मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो ||
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(प्रवचनसार :
७)
:- निश्चयतः चारित्र धर्म है तथा जो धर्म है, वह साम्य है ऐसा कहा गया
अर्थात् हैं। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम ही साम्य है ।
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यह सम्यक्चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है ।
40009 «Dagat spell-4062