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अर्थात् :- देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंग कारण और अन्तरंग । कारणरूप सामग्री की प्राप्ति होने पर ही भव्य आत्मा सम्यग्दर्शन का धारक होता!
___ यन्थकार समझाते हैं कि दोनों प्रकार के कारणों के मिलने पर आत्मा में परमात्मा की भावना उत्पन्न होती है, उसे सम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
स्वपरिच्छित्तिपुराणं यत्, तत्प्रतिच्छित्तिकारणम् । __ ज्योतिः प्रदीपवद्भाति, सम्यग्ज्ञानं तदीरितम् ।।२९।। अर्थ :
जो प्रथम स्वस्वरूप की परिच्छित्ति है तत्पश्चात् पर को जानने । का कारण है, उस प्रदीप की ज्योति के समान सुशोभित ज्ञान ! सम्यग्ज्ञान कहलाता है । विशेषार्थ :
इस कारिका में रत्नत्रय के दितीय अवयवस्वरूप सम्यग्ज्ञान । का वर्णन किया गया है । जो स्वद्रव्य और परद्रव्य को जानने में ! निमित्तरूप हो, उसे सम्यग्नान कहते हैं ।
आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने धयला टीका की प्रथम पुस्तक! में ज्ञान के चार अर्थ किये हैं । यथा -
-भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् । । अर्थात् :- भूतार्थ को प्रकाशित करने वाली शक्ति का नाम ज्ञान है ।
- सभ्दावविनिश्चयोपलम्भकं ज्ञानम् । । अर्थात् :- वस्तुस्वरूप का निश्चय करने वाले धर्म को ज्ञान कहते हैं ।
३- तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् । अर्थात् :- जो तत्त्वार्थ का निश्चय कराता है वह ज्ञान है ।
४- द्रव्यगुणपर्यायाननेन जानातीति ज्ञानम् । । अर्थात् :- जिसके व्दारा द्रव्य, गुण और पर्यायों को जाना जाता है उसे ज्ञान कहते ।