Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 54
________________ Pareer-weser-meena पतन्त्रानामृतम् -we -memages इत्थं स्वतन्त्रवचनामृतमापिबन्ति ।। स्वात्मस्थितः कनकसनमुखेन्दु सूतम् ।। ये जिह्वया श्रुतिपुते त्रियुगेन भव्याः । तेऽजरामरपदं सपदि श्रयन्ति ।।३२। अर्थ : इसप्रकार स्वात्मस्थित कनकसेन मुनि के मुखकमल से । निर्गत स्वतन्त्रवचनामृत का जो पान करते हैं, जो जिह्वा के व्दारा । पठन करते हैं अथवा कानों के व्दारा सुनते हैं, वे भव्यजीव शिघ्र ही। अजरामर पद को प्राप्त करते हैं । विशेषार्थ :-- इसप्रकार निरन्तर अपनी आत्मा में स्थित रहने वाले आचार्य श्री कनकसेन जी महाराज के मुखारविन्द से निःसृत हुआ यह स्वतन्त्रवचनामृतम् नामक ग्रन्थ है । जो भव्य जीव इस ग्रन्य का पठन करते हैं अथवा श्रवण करते हैं, वे भव्य शिघ्र ही अजरामर पद के आलय रूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं । : अमृतघट है स्याव्दाद वस्तु में अनेक धर्म हैं । हम अपने वचनों के द्वारा जो कुछ कहते हैं, वह आपेक्षिक सत्य है । इसी पद्धति को स्यायदाद कहते हैं । यह सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्यय करता है । जैसे नदियों का सम्पूर्ण जल सागर में जाकर मिल | जाता है, उसीप्रकार समस्त दर्शन स्याव्दाद में आकर सम्मिलित हो जाते हैं । स्यादाद का अवलम्बन लेकर ही सम्पूर्ण दर्शनों में समभाव स्थापित किया जा सकता है । अनेकता में एकता का दर्शन करने की कला स्याव्दाद के व्दारा अवगत की जा सकती है । संसार में विद्यमान समस्त पदार्थों को जानने के लिए स्याख्दाद को छोड़कर अन्य कोई महान युक्ति नहीं है ।

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