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अर्थ :
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एतत्त्रितयमेवास्य हेतुः समुदितं भवेत् । नान्यत्कल्पितमन्यैः, यद्वादिभिः युक्तिबाधितम् ||३१||
३८)
इन तीनों
समुदाय ही कोल का हेतु होता है । अन्यवादियों के द्वारा कल्पित मार्ग मोक्ष के मार्ग नहीं हैं, क्योंकि वे युक्ति से बाधित हैं ।
विशेषार्थ :
इस ग्रन्थ की द्वितीय कारिका में कहा गया था कि रत्नत्रय के व्दारा समस्त कर्मों का क्षय होता है तथा आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है । ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए उसी प्रतिज्ञा को दुहराया जा रहा है । न्यायशास्त्र में निगमन का बहुत बड़ा महत्व है निगमन शब्द को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री धर्मभूषण जी ने लिखा है।
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साधनानुवादपुरस्सरं साध्यनियमवचनं निगमनम् ।
(न्यायदीपिका) अर्थात् :- साधन को दुहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते
हैं ।
रत्नत्रय को छोड़कर अन्य सारे कुवादियों के द्वारा प्ररूपित मार्ग कुमार्ग हैं, क्योंकि वे सब मार्ग युक्ति के व्दारा बाधा को प्राप्त होते हैं ।
आचार्य श्री अकलंकदेव ने लिखा है :
न वा नानतरीयकत्वाद् १४९ /
न वा एष दोषः । किं कारणम् ? नान्तरीयकत्वात्, नहि त्रितयमन्तरेण मोक्षप्राप्तिरस्ति । कथम् ? रसायनवत् । यथा न रसायनज्ञानादेव रसायनफले नाभिसम्बन्धः रसायन श्रद्धानक्रियाभावात्, यदि वा रसायनज्ञानमात्रादेव रसायनफल सम्बन्धः कस्यचिद् दृष्टः सोऽभिधीयताम् ? न चासावस्ति । न