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Paper-case
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तात्रवाणागतम् --
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न नहीं हो सकता है ।
9:- अव्दैत वेदान्त का सिद्धान्त अव्दैत यदि अन्तिम सत्य है तो उसकी स्थापना के लिए कोई साधन नहीं है । यदि साधन । ६ को स्वीकार करते हो तो दैतवाद (अनेकपने का प्रसंग) उत्पन्न हो
जायेगा । यह ज्ञानग्रहण करने में सक्षम व्यक्ति के विवेक की। शुद्धता के अभाव का आकलन है ऐसा जैनों का कथन है ।।
10:- आत्मा द्रष्टा, सर्वज्ञानी, प्रभु, कर्ता, भोक्ता (जब वह कर्मो से और उसके मूर्त स्थिति से मुक्त होता है) तब आत्मा का ऊर्ध्वगमन करता है (जब वह मोक्ष के लिए गमन करता है तब) उत्पत्ति होती है (नवीन स्थिति), पुरातन स्थिति नष्ट होती है तब
आत्मा आनन्दित होता है । पदार्थ के मुख्य गुण जैसे होते हैं, वे है वैसे ही रहते हैं ।
11:- स्वगुणों की अपेक्षा से आत्मा अस्तिरूप है और परगुणों । की अपेक्षा से आत्मा नास्तिरूप है । यह आत्मा की विशेषता है ।। है इसतरह आत्मा गुणों से परिपूर्ण है । कर्मों के कारण आत्मा मूर्तिक है । उससमय आत्मा अपने पूर्ण गुणों से युक्त नहीं होने के कारण से आत्मा। मलीन होता है ।
12:- जब सत्य कथन किया जाता है तब आत्मा जिस स्थिति में (मानवीय, दैवी अथवा प्राणी आदि के) होता है, उससे भिन्न ही होना चाहिये । वह आनन्द के स्थिति में परिचित है, उसीरुप में एकस्वरूपी है। । कर्मो के बन्धन से बन्धनबद्ध होने के कारण से वह आकार वाला है । जब वह कर्मों से मुक्त हो जाता है, तब वह आकारहीन (अमूर्तिक) होता,
13:- आत्मा मूलरूप से एक ही है । वह अनेकरूपी नहीं हो सकता, क्योंकि उसका वैश्वीक रूप में (अर्थात जब उसमें प्रदर्शित उदिदष्ट नवीन स्वरूप में व भिन्न दिखाई पड़ते हो) परन्तु जब बान अनेकरूपों में परिवर्तित हो जाता है तब वहीं आत्मा अनेक हो जाता है ।
14:- यदि किसी ने आत्मा की पर्याय मान को देखा हो तो! है आत्मा क्षणिक है । यदि उसके स्थायी गुणों की अपेक्षा की जाये तो है वास्तविक वह आस्मा अक्षणिक भी है । कर्मों से मुक्त होने से आत्मा । ६ शून्य भी है और आनन्द से भरा हुआ होने के कारण आत्मा अशून्य भी