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स्वतज्जरणामृतम्
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होता है।
११ :- उपशान्तमोह : चारित्रमोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों के उपशम होने से यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के उपशान्तमोह नामका गुणस्थान होता है ।
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१२ :- क्षीणमोह मोहनीय कर्म के अत्यन्त क्षय होने से स्फटिक भाजनगत जलकी तरह अत्यन्त निर्मल अविनाशी यथाख्यात चारित्र के धारक मुनि के क्षीणमोह गुणस्थान होता है।
१३ :- सयोगकेवली : घातिया कर्मों की सैतालीस और अघातियाँ कर्मों की सोलह मिलाकर तिरेसठ प्रकृतियों का क्षय होने से लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग के धारक अरहन्त भट्टारक के सयोगकेवली गुणस्थान होता है। १४ :- अयोगकेवली मन, वचन और काय के योग से रहित केवलज्ञानसहित अरहन्त भट्टारक के अयोगी गुणार होता है। आत्मा सत्, चित् ज्ञान और सुख से सम्पन्न हैं । ऐसे आत्मा का स्वाभाविक दशा में अवस्थान का नाम ही मोक्ष है ।
दृग्ज्ञानवृत्ति मोहाख्य, विघ्ना विद्योदरान्वयः | कर्माणि द्रव्यमुख्यानि, क्षयश्चैषामसौ भवेत् ||२६||
अर्थ :
विद्या आदि को आवृत्त करने वाले दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अन्तराय इन प्रमुख द्रव्यकर्मो का क्षय करके आत्मा परमात्मा बन जाता है ।
विशेषार्थ :
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पुद्गलमयी कर्मों को द्रव्यकर्म कहते हैं । उसके घातिया और अघातिया के भेद से दो भेद हैं । जो कर्म आत्मा के ज्ञान और सुख
आदि अनुजीवी गुणों का घात करते हैं, उन कर्मों को घातिया कर्म कहते हैं । घातिया कर्म के चार भेद हैं । यथा दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ।
ज्ञानावरण,
जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आवृत्त करता है, उसे
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VUOSIK #FOOD6 #6639% 400004 2003