Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 44
________________ । moom ताजावतलाना-meannesamrapare ३० 17:- स्यास्तिनास्ति-अवसाव्य : प्रत्येक पर क्रम से विधि और। निषेध तथा एक साथ विधि और निषेधरूप धर्मों की अपेक्षा से कथंचित् अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्यरूप ही है । आचार्य भगवन्त इस कारिका के माध्यम से शिष्य को। आदेश देते हैं कि सप्तभंगी जय के व्दारा वस्तु का समीचीन ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये । ____निर्लेश्यं निर्गुणस्थानं, सच्चिद्ज्ञानसुखात्मकः । आत्यन्तिकमवस्थानं, स मोक्षोऽत्र यदात्मनः ।।२५।। अर्थ : लेश्या से रहित, गुणस्थानों से रहित, सदूप, चिद्रूप, ज्ञानमय, है सुखमय आत्मा का जो आत्यन्तिक अवस्थान होता है वही मोक्ष है। विशेषार्थ : कषायानुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । लेश्याओं के छह भेद हैं । यथा - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म । और शुक्ल । परमात्मा समस्त लेश्याओं से रहित होते हैं । मोह और योग के निमित्त से आत्मा के परिणामों में होने । वाली तारतम्यता को गुणस्थान कहते हैं ! गुणस्थान चौदह हैं । । उनका नामनिर्देश करते हुए आचार्य श्री नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती जी लिखते हैं - मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो या विरदा पमत्त इदरी अपुष्य अणियष्टि सुहमो या उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी या धोइस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्या।। (जीवकाण्ड : ९/१०) अर्थात् :- मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, । प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं। Swesor-mm-wesom-msear-ms-on-mesemomeness

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