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सतवामृतम्
इनका स्वरूप निम्नरूप से है।
१:- मिध्यात्व : मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से अतत्त्वार्थश्रद्धान रूप आत्मा के परिणामविशेष को मिथ्यात्वगुणस्थान कहते हैं । २:- सासादन : प्रथमोपशमसम्यक्त्व के काल में जब ज्यादा से ज्यादा छह आवली और कम से कम एकसमय शेष रहे उस समय किसी एक अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से नाश हो गया है सम्यक्त्व जिसके ऐसा जीव सासादनगुणस्थान वाला होता है। ३:- सम्यग्मिथ्यात्व : सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीव के मिश्ररूप परिणाम होते हैं, उसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं ४:- अविरतसम्यग्दृष्टि : दर्शनमोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम अथवा क्षय अथवा क्षयोपशम से और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय से व्रतरहित सम्यक्त्वधारी चौथे गुणस्थानवर्ती होता है। ५:- देशविरत : प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय से यद्यपि संयमभाव नहीं होता तथापि अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के उपशम से श्रावकव्रतरूप देशचारित्र होता है। इसी को देशविरत गुणस्थान कहते हैं।
६:- प्रमत्तविरत संज्वलन और नोकषाय के तीव्र उदय से संयमभाव तथा मलजनक प्रमाद ये दोनों ही युगपत् होते हैं इसलिये इस गुणस्थानवर्ती मुनि को प्रमत्तविरत अर्थात् चित्रलाचरणी कहते हैं। ७:- अप्रमत्तविरत: संज्वलन और नोकषाय के मन्द उदय होने से प्रमादरहित संयमभाव होता है इस कारण इस गुणस्थानवर्ती मुनि को अप्रमत्तविरत कहते हैं।
८:- अपूर्वकरण जिस करण में उत्तरोत्तर अपूर्व ही अपूर्व परिणाम होते जायें, उसको अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं।
९ :- अनिवृत्तिकरण : जिस करण में भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही हों और एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही हों उसको अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं।
१०:- सूक्ष्मसाम्पराय : अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदय को अनुभवन करते हुये जीव के सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान