________________
स्वतन्त्रजामृतम्
२४
सहजज्ञानपरिच्छेद्यो ग्राह्यः क्षयोपशमझानेनावेद्यत्वादग्राह्यः । अर्थात् :- आत्मा सहज ज्ञान के व्दारा जाना जाता है, अतः वह उस ज्ञान की अपेक्षा से ग्राह्य है परन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान की अपेक्षा से अग्राह्य है।
I
आत्मा स्व-सम्वेदन ज्ञान के व्दारा अपने सौख्यस्वरूप को ग्रहण करने वाला होने से स्व का ग्राहक हैं और प्रत्येक पदार्थ को जानने वाला होने से आत्मा पर का ग्राहक है परन्तु वह परद्रव्यरूप परिणमन नहीं करता, अतः वह परद्रव्य का अग्राहक भी है । इत्यनेकान्तरूपोऽसौ धर्मैरेवंविधः पदैः ।
ज्ञातेभ्योऽनन्तशक्तिभ्यो, स्वभावादपि योगिभिः ||२०||
2
अर्थ :
इसप्रकार वह आत्मा अनेक धर्मपर्दो के कारण अनेकान्तात्मक है । वह स्वभाव से अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा योगियों के व्दारा जाना जाता है ।
विशेषार्थ :
आत्मा आदि छहों ही द्रव्य परस्पर भिन्न प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों से संयुक्त होते हैं । किसी एक धर्म को मुख्य और शेष धर्मों को गौण कर देने पर वस्तु के एक-एक धर्म की सिद्धि होती हैं । इसी को अनेकान्त - स्याव्दादपद्धति कहते हैं ।
-
इसी बात को सुस्पष्ट करते हुए आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने लिखा है
अर्पितानर्पितसिद्धे ।
(तत्त्वार्थसूत्र :- ५ / ३२ ) अर्थात् :- विवक्षित और अविवक्षितरूप से एक ही द्रव्य में अनेक प्रकार के धर्म रहते हैं । द्रव्य होने के कारण से आत्मा भी अनन्त धर्मों से समन्वित है । ऐसे अनन्त धर्मात्मक आत्मा को जानने का सामर्थ्य महान योगियों में पाया जाता है । सामान्य साधक शास्त्रों के माध् यम से ही आत्मबोध प्राप्त कर सकते हैं ।