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Proomwwesomरवतन्त्रवचनागत memmen
आत्मा क्षणिक है । अतः जो करता है, वह भोक्ता नहीं होता । उन दोनों के मतिभ्रम को दूर करने के लिए आचार्य भगवन्त यहाँ समझाते हैं कि आत्मा अपनी पर्यायों का कर्ता और पर की पर्यायों का अकर्ता है । आत्मा अपने गुणों के व्दारा निज का भोगने वाला है तो इन्द्रियादिकों के आश्रय से अभोक्ता है ।।
आत्मा के नौ अधिकारों में कर्तृत्व और भोक्तृत्व नामक दो । अधिकार हैं । इनका वर्णन करते समय आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती जी लिखते हैं -
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दुणिच्छयदो।
वेदणकम्माणादा सुद्धणया सुखभावाणं।। वहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पर्भुजेदि। आदा णिच्छयणया क्षणभा खु आबस्स!!
(द्रव्यसंग्रह - ८ व ९) अर्थात् :- आत्मा व्यवहार से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, निश्चय से चेतन कर्म का कर्ता है और शुद्धनय से शुद्धभावों का कर्ता है।
आत्मा व्यवहार से सुख-दुःखरूप पुद्गल कर्मों को भोगता है और निश्चयनय से आत्मा चेतनस्वभाव को भोगता है।
स्वसम्वेदनबोधेन, व्यक्तोऽसौ कथितो जिनः ।
अव्यक्तः परबोधेन, ग्राह्यो ग्राहकोऽप्यतः ।।१९।। अर्थ :
जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि आत्मा स्वसम्वेदन ज्ञान के ब्दारा व्यक्त होता है । परज्ञान के कारण आत्मा अव्यक्त है । आत्मा याह्य और ग्राहक भी है । विशेपार्थ :
यहाँ परवादी के व्दारा प्रश्न उपस्थित किया गया है कि आत्मा व्यक्त है या अव्यक्त ? इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत कारिका के माध्यम से दिया गया है ।