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| pm-00-00-रखता नचानामृतम् mos-eविशेषार्थ :
कुछ मतावलम्बी आत्मा को अंगुष्टप्रमाण, यटकणिकाप्रमाण है है या सम जानते हैं ।
उ स का सउल करते हुए गन्यकार है कहते हैं कि आत्मा में प्रदेशों के उपसंहार और प्रसर्पण की शक्ति । । है । इसकारण आत्मा नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए शरीर के प्रमाण है आकार का धारक है ।
केवली समुद्धात के समय आत्मा के प्रदेश सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं । उससमय आत्मा को सर्वगत कहा गया है ।
स्वरूप सम्बोधन की टीका में लिखा है -
किं च लोकपूरणसमुद्घातकाले विश्व-सप्तरज्जुघनाकारं क्षेत्र प्रदेशैः व्याप्नोति इति विश्वव्यापी भवति न सर्वदा । अर्थात् :- लोकपूरण समुद्घात के काल में यह आत्मा सम्पूर्ण विश्वाकार अर्थात् । । सात घनराजु प्रमाण प्रदेशों को व्याप्त कर लेता है । अतः वह विश्वव्यापी है । आत्मा सर्वथा विश्वव्यापी नहीं है ।।
नैयायिक, मीमांसक और सांख्यमतावलम्बी आत्मा को प्रदेश की अपेक्षा से सर्वगत मानते हैं । जैनागम प्रदेश की अपेक्षा आत्मा।
को शरीरप्रमाण मानता है और ज्ञान की अपेक्षा सर्यगत । ये उन । मतों की अपेक्षा जैनों के मत में भिन्नता है ।
कर्ता स्वपर्यायेण स्यादकर्ता परपर्यायैः । __भोक्ता प्रत्यात्मसम्प्रीतेरभोक्ता करणाश्रयात् ।।१८।। अर्थ :
आत्मा अपनी पर्यायों का कर्ता है और परपर्यायों के कारण से अकर्ता है 1 आत्मा अपनी आत्मप्रीति के कारणों का भोक्ता है
और इन्द्रियादिकों के आश्रय से अभोक्ता है । विशेषार्थ :
सांख्यमतावलम्बियों की मान्यता है कि प्रकृति की है, आत्मा नहीं । आत्मा तो केवल भोक्ता है । बौद्धों का मत है कि