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किया जाये तो उनका वर्णन सम्भव है । अनन्त गुणों का कथन । एकसाथ नहीं हो सकता । अतः आचार्यदेव समझाते हैं कि क्रमविवक्षा के कारण आत्मा वाच्य है और उसकी वाच्यता युगपत् नहीं हो सकती, इसलिए वह अवाच्य भी है ।। 1. द्रव्याद्यैः स्वगतैः भावोऽभावाः परगतैस्सदा |
नित्यः स्थितेरनित्योऽसौ. व्ययोत्पत्तिप्रकारतः ।।१६।। अर्थ :
आत्मा स्वगत द्रव्यादि भावों के कारण भाववान है और । परगत भावों के कारण अभाववान है । धौव्यरूप होने से आत्मा नित्य है और व्यय तथा उत्पाद के कारण से अनित्य है । विशेषार्थ :
आत्मा भावस्वरूपी है कि अभावस्वरूपी है ? आत्मा नित्य है कि आत्मा अनित्य है ? ऐसा प्रश्न अन्य मतावलम्बी शिष्य के । । व्दारा प्रस्तुत किये जाने पर आचार्यदेव इस कारिका के व्दारा उसके लिए समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं ।
आत्मा अपने स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की। अपेक्षा से भावस्वरूपी है । आत्मा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा अभावस्वरूपी है ।
आत्मा ध्रौव्यस्वरूपी होने से जित्य है । आत्मा उत्पाद और! । व्ययस्वरूपी होने से अनित्य भी है ।
आकुञ्चनप्रसाराभ्यामघातेभ्यः तनुप्रमः । समुद्घातैः प्रदेशैः स्यात्स च सर्वगतो मतः ॥१७।। अर्थ :
आकुंचन और प्रसारण शक्ति के कारण आत्मा शरीरप्रमाण है। और केवली समुद्घात के समय आत्मप्रदेश लोकव्यापी होते हैं, । इसलिए आत्मा को सर्वगत माना गया है ।