Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 30
________________ विशेषार्थ : लिखा है है । गुण और गुणी में कथंचित् भेद पाया जाता है । आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए - स्वतला मृतम ववदेसा संाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा । ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते ।। | १६ (पंचास्तिकाय - ४६) अर्थात् :- द्रव्य और गुणों में गुण गुणी भेद होता है। वे कथनभेद, आकारभेद, गणनाभेद और आधारभेद से कथंचित् भिन्न हैं। वे कथंचित् अभिन्न भी हैं। जैसे आत्मा गुणी एवं ज्ञान गुण है, अतः उन दोनों में कथंचित् भेदाभेदत्व है। संज्ञाभेद: आत्मा व ज्ञान, इसतरह दोनों में संज्ञाभेद है । लक्षणभेद: आत्मा का लक्षण चेतना व ज्ञान का लक्षण जानना है, यह दोनों में लक्षणभेद है I संख्याभेद: आत्मा एक है। ज्ञान के पाँच भेद हैं। यह संख्याभेद है। विषयभेद: आत्मा आधार है। ज्ञान आधेय है। यह विषयभेद - इस अन्तर की अपेक्षा से ही आत्मा का अपने सुखादि गुणों से कथंचित् भिन्नत्व है । प्रत्यक्षतः भी भेद स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । प्रत्येक गुण की भूतकाल में अनन्त पर्यायें हो चुकी हैं, भविष्यकाल में भी प्रतिक्षण एक-एक के क्रम से अनन्त काल तक अनन्त पर्यायों की उत्पत्ति होगी । ऐसी स्थिति में आत्मा भूत और भविष्यकालीन पर्यायों से भिन्न सिद्ध हो गया । ऐसा होते हुए भी गुण आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहते हैं । तादात्म्य सम्बन्ध के कारण से आत्मा उन गुणों से अभिन्न है । आत्मा कर्मों से आबद्ध हुआ है । इसकारण से आत्मा मूर्त है परन्तु स्वभाव से आत्मा अमूर्त है । आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती जी लिखते हैं

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