Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 23
________________ amermosomeomon-me स्वायवनामृतम् -moom देना चाहते हैं? इसलिए परस्पर मतिभेद होने के भय से जो एक ईश्वर की कल्पना है है, वह भोजन आदि व्यय के इर से कृपण पुरुष के अपने अत्यन्त प्रिय पुत्र और स्त्री आदि को छोड़कर शून्य जंगल में वास करने के समान है। जैसे कोई कृपण पुरुष खर्च के भय से अपने स्त्री-पुत्रादि को छोड़कर वन में चला जाय, उसी तरह। मतिभेद के भय से आप लोग भी एक ईश्वर की कल्पना करते हैं। यदि ईश्वर स्वाधीन होकर जगत् को रचता है और वह परम दयालु है, तो। वह सर्वथा सुख-सम्पदाओं से परिपूर्ण जगत् को न बनाकर सुख-दुःखरूप जगत् का सर्जन क्यों करता है? यदि कहो कि जीवों के जन्मान्तर में उपार्जन किये हुए। है शुभ-अशुभ कर्मों से प्रेरित ईश्वर जगत् को बनाता है, तो फिर ईश्वर के स्वाधीनत्व का ही लोप हो जाता है। क तथा, संसार की विचित्रता को कर्मजन्य स्वीकार करने पर सृष्टि को ईश्वरजन्य मानना केवल कष्टरूप ही है। इससे अच्छा तो आप हमारा ही मत। है स्वीकार कर लें। तथा हमारे मत को स्वीकार करने पर आपको घटकुट्यां प्रभातम् । । न्याय का प्रसंग होगा। (भाग - जैसे दोई मनुः मनी सामान ना पासून न। देने के विचार से रास्ते में आने वाले चुंगीघर को छोड़कर किसी दूसरे रास्ते से शहर के भीतर जाने के लिये रातभर इधर-उधर चक्कर मारकर प्रातःकाल फिर से । है उसी चुंगीघरपर जा पहुंचता है (घटकुट्यां प्रभातम्),उसीप्रकार आप लोगों ने ईश्वरको । । जगत् का नियन्ता सिद्ध करने में बहुत कुछ प्रयत्न किया, पर आखिर में हमारा ही मत स्वीकार करना पड़ा।) तथा, ईश्वर जीवों के पुण्य-पाप की अपेक्षा रखता हुआ ! जगत् को बनाता है तो वह जिसकी अपेक्षा रखता है उसको नहीं बनाता। जैसे कुम्हार घट के बनाने में दण्ड की सहायता लेता है, इसलिये वह दण्ड को नहीं। बनाता, उसतरह यदि ईश्वर जगत् के बनाने में कर्मों की अपेक्षा रखता है, तो वह कों के बनाने वाला नहीं कहा जा सकता। अतएव ईश्वर अनीश्वर (असमर्थ) है, ! स्वतन्त्र नहीं। तथा, बुद्धिमान पुरुषों की प्रवृत्ति स्वार्थ {किसी प्रयोजन से अथवा करुणाबुद्धिपूर्वक ही होती है। यहाँ प्रश्न होता है कि जगत् की सृष्टि में ईश्वर स्वार्थ । से प्रवृत्त होता है अथवा करुणा से ? स्वार्थ से ईश्वर की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, है क्योंकि वह कृतकृत्य है। यह प्रवृत्ति करुणा से भी सम्भव नहीं, क्योंकि दूसरे के दुःखों को दूर करने की इच्छा को करुणा कहते हैं। परन्तु ईश्वर के सृष्टि रचने से पहले जीवों के इन्द्रिय, शरीर और विषयों का अभाव था, इसलिये जीवों के दुःख

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