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स्वतन्त्रतामृत
अव्दैतसाधनं गस्ति तपत्तिस्तदन्यथा । न्यूनादिति आच्छबोधादेर्देहिनामिति जैनधीः ||RIL
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अर्थ :
अव्दैत को सिद्ध करने वाला कोई साधन नहीं हैं । यदि अद्वैत को सिद्ध करने वाला साधन मानोगे तो साधन और साध्य इसतरह दैत का प्रसंग प्राप्त होगा ।
साधन की न्यूनता से शरीरधरियों को निर्मल ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती यह जैनमान्यता है ।
विशेषार्थ :
अव्दैतमत के अनेक भेद हैं । उनमें विज्ञानादैन, चित्राद्वैत, ब्रह्माद्वैत आदि प्रमुख हैं ।
इस कारिका में ग्रन्थकार स्पष्ट कर रहे हैं कि अद्वैतसिद्धान्त प्रमाणबाधित है । दर्शनशास्त्र में प्रत्येक विषय को सिद्ध करना आवश्यक होता है । साध्य की सिद्धि के लिए साधनों की आवश्यकता होती है । अव्दैत में या तो साध्य ही होगा या साधन ही होगा इसतरह अद्वैतरूप साध्य की सिद्धि करने वाला कोई साधन ही नहीं हो सकता । यदि दोनों के अस्तित्व को स्वीकार किया जायेगा तो साधन और साध्य में द्वैतभाव की प्राप्ति होगी । बिना साधन के तो किसी साध्य की सिद्धि हो नही सकती ।
आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है हेतोरव्दैतसिद्धिश्चेद्, व्दैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः ।
हेतुना चेदिना सिद्धिदैतं वाङ्मात्रतो न किम् ।। (आप्तमीमांसा :- २६ )
अर्थात् :- यदि हेतु के व्दारा अव्दैत की सिद्धि मानी जाय तो हेतु और साध्य का व्दैत सिद्ध होता है । यदि हेतु के बिना ही अव्दैत की सिद्धि को माना जाये तो वचनमात्र से ज्वैत की सिद्धि को क्यों न माना जाय ?
इससे यह सिद्ध होता है कि अव्दैतदर्शन की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है ।