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JER अनेक मोतियों में यह भी एक महामोती है । आचार्य श्री सिद्धसेन । दिवाकर ने लगभग २१ व्दात्रिंशतिका (३२ श्लोक वाली रचना) लिखी हैं । आचार्य श्री अमितगति जी की ब्दात्रिंशतिका दिगम्बर आम्नाय में तो सुप्रसिद्ध ही है । उसी शैली में लिखी हुई यह एक अनुपम रचना है । . इस ग्रन्थ के नाम में व इस ग्रन्थ के रचयिता के विषय ई में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थान्त में इन दोनों है समस्याओं का समाधान कर लिया है । जयकर्ता ने लिखा है।
इत्थं स्वतन्त्रवचनामृतमापिबन्ति । स्वात्मस्थितेः कनकसेनमुखेन्दु सूतम् ।।
ये जिह्वया श्रुतिपुते त्रियुगेन भव्याः ।
तेजरामरपदं सपदि श्रयन्ति ॥३२।। अर्थ :
इसप्रकार कनकसेन मुनि के मुखकमल से निर्गत स्वतन्त्रवचनामृत का जो पान करते हैं, जो जिह्वा के व्दारा पठन । करते हैं अथवा कानों के व्दारा सुनते हैं, वे भव्यजीव शिघ्र ही अजरामर पद को प्राप्त करते हैं ।
इस श्लोक से दो बाते सिद्ध हो गयी कि - ११:- इस ग्रन्थ का नाम स्वतन्प्रवचनामृतम् ही है । १२:- इस ग्रन्य के रचयिता आचार्य श्री कनकसेन जी हैं ।
आत्मा को स्वतन्त्रता की प्राप्ति कैसे होगी? इस प्रश्न का, सुन्दर रूप से समाधान इस ग्रन्थ में किया गया है । अमृत प्राशन करके अमर होने की अभिलाषा करने वाले इस वचनरूप अमृत का प्राशन अवश्य करें ।
न्यकर्त्ता के विषय में विशेष कोई जानकारी हमारे पास है नहीं है । एकीभाव स्तोत्र के रचयिता आचार्य श्री वादिराज जी दर्शन
के महान ज्ञाता थे । उनका मूल नाम इतिहासकारों ने कनकसेन ही स्वीकार किया है । क्या इस ग्रन्थ के रचयिता वे ही हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इतिहासकार अवश्य खोजेंगे ।