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योगमतावलम्बी कहता है कि साधन के अभाव में साध्य का अभाव । हो जाता है । यदि ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानना अनुचित । ही होगा, क्योंकि वह एक कार्य है । कार्य का कोई न कोई कर्ता अवश्य होता है । आपके वचनों के अनुसार ईश्वर का अभाव मानने पर तो देहादि की उत्पत्ति असंभव हा हो जायेगी ।
(पूर्वपक्षकार के वचनों को प्रस्तुत करने के बाद आचार्य ! परमेष्टी का उत्तर नहीं पाया जाना यहाँ आश्चर्य को उत्पन्न करता । । है । मैं स्याव्दाद मंजरी का सहयोग लेकर खण्डन पक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ । :- अनुवादक )
पूर्वपक्षकार का कथन है कि
उर्वीपर्वतपर्वादिकं सर्व, बुद्धिमत्कर्तुक, कार्यत्वात् , । यद् यत्कार्य तत्तत्सर्व बुद्धिमत्कर्तुकं, यथा घटः, तथा चेदं,। तस्मात् तथा । व्यतिरेके व्योमादि । यश्च बुद्धिमांस्तत्कर्ता सी भगवानीश्वर एवेति । अर्थात् :- पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष आदि पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ता के बनाये हुवे हैं, । क्योंकि ये कार्य हैं । जो-जो कार्य होते हैं, वे सब किसी बुद्धिमान कर्ता के बनाये हुए
होते हैं, जैसे - घट आदि कार्य हैं, इसलिए ये किसी बुद्धिमान के व्दारा बनाये हुए। । होने चाहिये । व्यतिरेक के रूप में आकाश आदि कार्य नहीं हैं, इसलिए आकाश
आदि को किसी बुद्धिमान कर्ता ने बनाया हुआ नहीं है । जो कोई बुद्धिमान इन। पदार्थों का कर्ता है, वह भगवान ईश्वर ही है ।
स वायं जगन्ति सृजन सशरीरोऽशरीरो वा स्यात् ?? । सशरीरोऽपि किमस्मदादिवद् दृश्यशरीरविशिष्टः, उत। पिशाचादियददृश्यशरीरविशिष्टः? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधा, तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुरभादौ कार्यस्वस्य दर्शनात् प्रमेयत्वादिवत् साधारणानेकान्तिको हेतुः।
द्वितीयविकल्ये पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः। है कारणम्, आहोस्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम् ? प्रथमप्रकार कोश -पान प्रत्यायनीयः, तस्सिद्धौ प्रमाणाभावात् । इतरेतराश्रय
ये पुनरदृश्य गुण्यम् ? त । इतरेत