Book Title: Swatantravachanamrutam
Author(s): Kanaksen Acharya, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 12
________________ तला L किये गये वस्तुतत्त्व को सत्य की कोटि में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है । इस सिद्धि में गव्यकर्त्ता ने अस्ति नास्ति, गुणसहित गुणरहित, भिन्न-भिन्न मूर्तिक- अमूर्तिक, एक-अनेक, नित्य- अनित्य, शून्य- अशून्य, चेतन-अचेतन, भाववान अभाववान, शरीरप्रमाण- सर्वगत, कर्त्ता अकर्त्ता, भोक्ता - अभोक्ता, व्यक्त-अव्यक्त और ग्राह्य ग्राहक आदि धर्मों का उल्लेख करके उनकी आत्मा में सिद्धि की है जैन मतानुसार वस्तु के यथार्थ बोध को प्राप्त करने के लिए चार उपायों की नियोजना आवश्यक होती है । लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप यह उस चतुष्पदी का नाम है । इस ग्रन्थ में वस्तुतत्त्व को जानने के लिए प्रमाण, नय और सप्तभंगी की आवश्यकता प्रकट की गयी है। एक-एक कारिका के माध्यम से इन तीनों का लक्षण स्पष्ट करके उनके भेदों का कथन किया गया है । , मोक्ष में आत्मा की स्थिति किसप्रकार होती है ? इसे स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकर्ता ने लिखा है कि मोक्ष में सत्, चित्, ज्ञान और सुख का आत्यन्तिक अवस्थान होता है । वहाँ किसी गुणस्थान और लेश्या का सद्भाव नहीं होता । घातियादि कर्मों का विनाश होने पर ही वह अवस्था प्राप्त होती है । जैसे अग्नि के संयोग से सुवर्ण शुद्ध हो जाता है, उसीप्रकार रत्नत्रय के द्वारा आत्मा भी शुद्ध होता है । रत्नत्रय का विवेचन तीन कारिकाओं में किया गया है । अन्त में वसन्ततिलका छन्द के माध्यम से ग्रन्थ का समापन किया गया है । इस कारिका में ग्रन्थकार ने अपने नाम के साथ स्वात्मस्थितेः शब्द का प्रयोग किया है । इस शब्द के व्दारा ग्रन्थकार ने दार्शनिकता के साथ-साथ अपनी अध्यात्मप्रवणता भी अभिव्यक्त की है । इस ग्रन्थ के द्वारा जैन दार्शनिकों की तार्किकता, विषय को विवेचित करने की क्षमता और जैनदर्शन की निर्दोषता का बोध स्वयमेव सिद्ध हो जाता है । इस ग्रन्थ का प्रचार और प्रसार होना अति-आवश्यक है । लेखक परम पूज्य मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज adition 00 +900da sanggu 10000=#00006»-<#3333+ 473333; 49039

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